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________________ प्रस्तावना. ७ लकीरके फकीर, बाबा वाक्यं प्रमाणं, उसही डगर चलते हैं, इतना विचार नहीं, घर २ भीख मंगेको हम पृथ्वीनाथ क्या समझके कहते हैं और जो दुराचारी कुकर्मा परधनवंचक इन समाजसैं धन ठगना चाहै उनोंके लिये यह सहज मार्ग है, वस वह इनके चरण छूओ, और इन वेषधारियोंकी, असत्य स्तुति करै, . जाकर हाजरी भरै, असत्य निंदा दुसरे धर्म वालेकी करै, वह इनोंकों अत्यंत वल्लभ होता है, उसके लिये, अपने समाजियोंसे कहते हैं, अमुक भायो, वाई, सत्यवक्ता, आछो है, तब मुख्य कहता है, विशेष आछो है वस वह इस समाजमैं, ए, मे, पास हुआ, समझा जाता है, कुपात्रका दान, धर्मसैं निषेध करा है, तथापि, उदार दिलसैं देते हैं, ऐसै २ मत भी आर्यावर्त्तमैं कालके महात्म्यसैं, प्रचालत है, जब तक जैनधर्मवाले संप्रति राजावत् जैनविद्वान पंडितोंकों नानादेश भाषा. शिखाकर सर्वज्ञधर्म सायन्स प्रत्यक्ष प्रमाणसैं हितावहकी पुस्तकें छपाकर सर्व देशी जनों को उपदेश नहीं करांयगें तावत् उदयकाल आवेगा नहीं दिनोंदिन जैनधर्मी जनोंकी शंक्षान्यून इसी कारण हो रही है, जिन २ मतों मैं स्थान २ गहस्थ लोक उपदेश करते फिरते हैं, उन २ मतोंकी दिनोदिन वृद्धि हो रही है, जैसैं आर्या समाज, ईसाई इत्यादिकोंकी, देखते २ वृद्धि हो गई, जैन ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाणसे, इसभव, परभव दोनों में लाभ दायक धर्म उसकी दिनोंदिन हानी क्यों होती है, इसका क्यों नहीं विचार करते हैं, ईसाई धर्मके गुरु, मुख्य पोपपादरी, पादरी, मुसलमान मतके पीरजादे पारसियोंके गुरु, शिव, वैष्णव, मतके, ब्राह्मन, गोकुल गुसांई, आर्या, इत्यादि सर्व स्त्री धन रखनेवाले हैं, उन उपदेशकोंके वचन, मुख्यतया शिरोधार्य करते हैं, जैनधर्म तीन फिरके श्वेतांबरी स्त्री और धन रखनेवाला पूरा पंडित सत्योपदेश हितकारीभी कहता हो तो, प्रथम तो सुनेतेही नहीं यदि सुने तो, श्रद्धा प्रतीति नहीं करते, त्यागी स्त्रीधनका, ऊपरसैं इनोंकों दीखना चाहिये वस उसअपठकी वार्ता पर भी श्रद्धा करते हैं, जैन सूत्रोंमैं, त्यागमार्ग, साधुजनके लिये अत्यंतही कठिन दर्शाया है, वे सर्व देशोमैं पहुंचही नहीं शक्ते, कहांई जाते है तो, स्थानमैं रहे व्याख्यान करते हैं, उहां स्वाफिरकेके विना, अन्य दर्शनी आता नहीं, तब जैन संक्षा कैसैं वृद्धि पावै, महम्मद साहबका मत, और स्वामी शंकरका मत तो, बलात्कारपर्ने, वृद्धि पाया था, ऐसा करना, विद्वानोंकों . मंतव्य नहीं, इस समय जैसैं ईसाई, आर्या, खुल्ले दरम्यान व्याख्यान करते हैं, वैसा जैनधर्म वालोंने सर्वत्र करना, कराना चाहिये, यदि श्रद्धा सर्वज्ञ वाक्य पर हो जावै, अभक्षादिक नहीं त्यागसके तथापि श्रेय है, यथा नेम प्रभुके
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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