SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रही, आखिर उहाँ आये हुये सर्व गच्छके गीतार्थोनें धर्म सागरजीको मृषावादी समझ ८४ गणसे निकाला खरतरगच्छकों जिनाज्ञा पालक विजयपत्र लिखा जिसका तांबा पत्रवाडी पार्श्वनाथजीके मंदिरके ज्ञान भंडारमें रखा, नकल सामाचारी शतकमें उपाध्याय समयसुंदरजीने लिखी है, उससमय भव्यजीव श्री संघमें हर्षका पारावार छागया, ग्रंथ रचनेवाले आप धर्म सागरजी अपने लिखे लेखको सत्य नहीं कर सके तो उस ग्रंथकों माननेवाले खरतरगच्छका पराजय करना लिखते हैं विजयसारमें यह लेख स्वमताभिमानसूचक सर्वथा असत्य है, यदि सत्य होता तो विक्रम संवत् उगणीश शय चोहत्तर पचहत्तर, छिहत्तर पर्यंत खरतर गच्छके मणिसागर सुमतिसागर मुंबईमें शास्त्रार्थ करने कितने छापे द्वारासूचना देते रहे लेकिन एक भी सन्मुख परपक्षी नहीं हो सके, वस मालूम हुआ आपके विजय सारके लेखकी सत्यता वृथाकुसंपकी वृद्धि करणी, बुद्धिमत्तानहीं है, __ पूनां नगरमें श्रीजिन भक्तिसूरिः जीने पेसवाराव शिवाजीके सन्मुख वेदांतमति: योंसें चर्चाकर जैनधर्मका विजयडंका बजाया, सादडीगाममें तपागच्छ वालोंने खरतर गच्छकों जिनाज्ञा विरुद्ध कथन करा, तब शास्त्रार्थभं तपोको निरुत्तर करा, श्रीसंघ भव्य जीवप्रमुदित हुए, निर्मल जलको गदलाकरनेवाला महिष और शूकर ग्रीष्मसे तपायमान गइलाकरता है लेकिन जल अपने शीतल गुणको नहीं छोडता है, योधपुरमें राठोडराजा मानसिंघजीके सन्मुख शभामैं कास्मीरी पंडितो. जैनधर्म का उपहास्य करके कहा जैनसनातनवाले तक्रसैं अलग किये अनंतर दो घटिकाके नवनीतमैं समुर्छिम पंचेंद्रीजीवोंकी उत्पत्ति तद्वर्ण कहते हैं, येसर्व मृषावाक्य अप्रमाण है, तब माहाराजानैं जैनयति महाविद्वान् शंभु ( शिवचंद्र) जीकों शास्त्रार्थके लिये पालीसैं आमंत्रन करा तब इसवाक्यके प्रत्युत्तरमैं शिवचंद्रजी एकगऊ मंगवाकर उसकी पूंछकों इधर उधरकर देखने लगे तब माहाराजा आश्चर्यमैं आकर पूछा हे गुरु पूंछ मैं क्या देखते हो शिवचंद्रजीनें उत्तर दिया हे नरेंद्र 'प्रष्णकर्ता पंडितोंके मंतव्या नुसार गऊकीपूंछमें तेतीस कोटिदेवता रहते हैं इसलिये इतनी देर देखा लेकिन एकदो भी देखनमैं आया नहीं ३३ कोटि तो दूर रहै ये वचन सुण राजादिक हसपडे वे पंडित लज्जितहो शिवचंद्रजीकी काव्यबंध स्तुति करी नृपनैं वादिगज सिंह पद दिया इसप्रकार विक्रमशताब्दीउगणीशमैं खरतर गछ मंडलाचार्य बालचंद्रसूरिनैं नाशकमैं महाराष्ट्र तेतीस पंडितोंकों जैनधर्म 'नास्तिक नहीं आस्तिोंमें अग्रेश्वरी है सिद्ध कर दिया पंडितो. विजय पत्र लिख दिया इसप्रकार उज्जणमैं पंडित रायचंद्रजी यतिनैं दक्षणीपंडितोंकों शब्दशास्त्र और स्याद्वादन्यायकी शेलीसैं अन्य न्यायको सूर्य सन्मुख तेजहीन तारकवत् कर
SR No.032488
Book TitleMahajan Vansh Muktavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamlal Gani
PublisherAmar Balchandra
Publication Year1921
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy