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________________ [ 64 ] पृष्ठतश्च पुरश्चास्य पद्माः सप्त विकासिनः। प्रादुर्वभूवुरूद्गन्धिसान्द्र किञ्जल्करेणवः ॥274॥ जिनकी केसर के रेणु उत्कृष्ट सुगन्धि से सान्द्र हैं, ऐसे वे प्रफुल्लित कमल सात तो भगवान् के आगे प्रकट हुए थे और सात पीछे । तथान्यान्यपि पद्मानि तत्पर्यन्तेषु रेजिरे। लक्षम्यावसथ सौधानि संचारीणीव खाङ्गणे ॥2750 इसी प्रकार और कमल भी उन कमलों के समीप में सुशोभित हो रहे थे, और वे ऐसे जान पड़ते थे मानो आकाश मेंचलते हुए लक्ष्मी के रहने के भवन ही हों। हेमाम्भोजमयां श्रेणीमलिश्रेणिभिरन्विताम् । सुरा व्यरचयन्नेनां सुरराज निदेशतः॥276॥ भ्रमरों की पंक्तियों से सहित इन सुवर्णमय कमलों की पंक्ति को देवलोग इन्द्र की आज्ञा से बना रहे थे। रेजे राजी वराजी सा जिनपरपजोन्मुखी। ___ आदित्सुखि तत्कान्तिमतिरेन कादयः न ताम् ॥2770 जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों के सम्मुख हुई वह कमलों की पंक्ति ऐसी जान पड़ती थी मानो अधिकता के कारण नीचे की ओर बहती हुई उनके चरण-कमलों की कान्ति ही प्राप्त करना चाहते हों। ततिविहार पद्मानां जिनस्योपाघ्रि सा बभौ । नमः सरसि संफुल्ला त्रिपञ्चककृतप्रभा ॥278॥ आकाश रूपी सरोवर में जिनेन्द्र भगवान के चरणों के समीप प्रफुल्लित हुई वह विहार कमलों की पंक्ति पन्द्रह के वर्ग प्रमाण अर्थात् 225 कमलों की थी। उस समय भगवान के दिग्विजय के काल में सुवर्णमय कमलों से चारों ओर से व्याप्त हुआ आकाश ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों जिसके कमल फूल रहे हों, ऐसा सरोवर ही हो । इस प्रकार समस्त जगत के स्वामी भगवान वृषभ देव ने जगत को आनन्दमय करते हुए तथा अपने वचनरूपी अमृत से सबको सन्तुष्ट करते हुए समस्त पृथ्वी पर विहार किया था । जनसमूह की पीड़ा हरने वाले जिनेन्द्र रूपी सूर्य ने वचनरूपी किरणों के द्वारा मिथ्यात्वरूपी अहंकार के समूह को नष्ट कर समस्त जगत् प्रकाशित किया था । सुवर्णमय कमलों पर पैर रखने वाले भगवान ने जहाँ-तहाँ से विहार किया वहीं-वहीं के भव्यों ने धर्मामृत रूप जल की वर्षा से परम संतोष धारण किया था ॥279-282।। (14) दोषरहित तीर्थङ्कर जो स्वयं धनी होता है वह दूसरों को धन दे सकता है जो स्वयं निर्धन होते हैं वे दूसरों को धन कैसे दे सकते हैं। इसी प्रकार जो स्वयं धर्म, ज्ञान, चारित्र, अहिंसा, सत्य, प्रेम समता के धनी होते हैं वे दूसरों को धर्म ज्ञानादिक वितरण कर सकता है । दूषित वस्त्र को स्वच्छ करने के लिए स्वच्छ जल, सोडा आदि की जरूरत होती है । परन्तु अस्वच्छ वस्त्र को स्वच्छ करने के लिए यदि गन्दी नाली का पानी,
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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