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________________ [ 56 ] शाश्वतिक सुख प्राप्त होता है और समस्त दुःख नष्ट हो जाते हैं । इसीलिये कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं—यह दिव्यध्वनि “तिहुवण-हिद-मधुर-विसद-वक्काणं' अर्थात् त्रिभुवन हितकारी, मधुर विषद स्वरूप है । देवकृत तेरह अतिशयमाहप्पेण जिणाणं, संखेज्जेसुं च जोयणेसु वणं । पल्लव-कुसुम-फलद्धी-भरिदं जायदि अकालम्मि॥916॥ ति. प.2-अ.4-पृ.287 कंटय-सक्कर-पहुदि, अवणित्ता वादि सुरकदो वाऊ । मोतूण पुम्ब-वेरं, जीवा वट्टति मेत्तीसु ॥917॥ दप्पण-तल-सारिच्छा, रयणमई होदि तेतिया भूमी। गंधोदकेई वरिसइ, मेघकुमारो पिसक्क-आणाए ॥918॥ फल-भार-णमिद-साली-जवादि-सस्सं सुरा विकुव्वंति । सव्वाणं जीवाणं, उप्पज्जदि णिच्चमाणंदो ॥919॥ वायदि विक्किरियाए, वायुकुमारो हु सीयलो पवणो। कूव-तडायादीणि णिम्मल-सलिलेण पुण्णाणि ॥920॥ धूमुक्कपडण-पहुदीहि विरहिवं होदि णिम्मलं गयणं । रोगावीणं बाधा, ण होंति सयलाण जीवाणं ॥921॥ जक्खिद-मत्थएK, किरणुज्जल-दिव्व-धम्म चक्काणि। दढूण संठियाई, चत्तारि जणस्स अच्छरिया ॥922॥ छप्पण्ण चउदिसासं, कंचण-कमलाणि तित्थ-कत्ताणं । एक्कं च पायपीढे, अच्चण-दव्वाणि दिव्य-विहिदाणि ॥923॥ (1) तीर्थंकरों के महात्म्य से संख्यात योजनों तक वन प्रदेश असमय में ही पत्रों, फूलों एवं फलों से परिपूर्ण समृद्ध हो जाता है । (2) काटों और रेती आदि को दूर करती हुई सुखदायक वायु प्रवाहित होती है। (3) जीव पूर्व वैर को छोड़कर मैत्री-भाव से रहने लगते हैं। (4) उतनी भूमि दर्पणतल सदृश स्वच्छ एवं रत्नमय हो जाती है। (5) सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार देव सुगन्धित जल की वर्षा करता है। (6) देव विक्रिया से फलों के भार से नम्रीभूत शालि और जौ आदि सस्य की रचना करते हैं। (7) सब जीवों को नित्य आनन्द उत्पन्न होता है। (8) वायुकुमार देव विक्रिया से शीतल पवन चलाता है। (9) कूप और तालाब आदिक निर्मल जल से परिपूर्ण हो जाते हैं। (10) आकाश धुआँ एवं उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है।
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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