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________________ [ 48 ] तथा कण्ठ से हलन-चलन रूप व्यापार से रहित होकर एक ही समय में भव्य जनों को आनन्द करने वाली भाषा दिव्य ध्वनि है । केरिसा सा दिव्यज्झुणि सव्वभासासरुवा अक्खराणक्खरप्पिया अणंतत्थ गब्भबीज पदघडिय सरीर निसंझूविसथ छग्घडियासु णिरंतरं पयट्ठमाणिया इयरकालेसु संसय विवज्जासाणज्झव साय भावगय गणह देवं पडिवट्टमाण सहावा संकर वदिगरा भावादो विसद सरुवा रारुण बीस धम्म कहा कहण सहवा" ज० ध० पु०, पृ० 115 प्रश्न 1-वह दिव्य ध्वनि कैसी होती है अर्थात् उसका क्या स्वरूप है ? उत्तर-वह सर्वभाषामयी है, अक्षर-अनक्षरात्मक है, जिसमें अनन्त पदार्थ समाविष्ट हैं अर्थात् जो अनन्त पदार्थों का वर्णन करती है, ऐसे बीज पदों से जिसका शरीर घड़ा गया है, जो प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल इन तीन संन्ध्याओं में छह-छह घड़ी (पावणे तीन घण्टे) तक निरन्तर खिरती है और उक्त समय को छोड़कर इतर समय में गणधर देव के संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय भाव को प्राप्त होने पर उनके प्रति प्रवृत्ति करना अर्थात् उनके संशयादिक को दूर करना जिसका स्वभाव है, संकर और व्यतिकर दोषों से रहित होने के कारण जिसका स्वरूप विशद है और उन्नीस अध्ययनों के द्वारा धर्म कथाओं का प्रतिपादन करना जिसका स्वभाव है, इस प्रकार के स्वभाव वाली दिव्य ध्वनि समझना चाहिये। गंभीरं मधुरं मनोहरतरं दोषव्यपेतं हितं । कंठौष्ठादि वचोनिमित्त रहितं नो वातारोधोद्गतम् ॥ स्पष्टं तत्तदमीष्ट वस्तु कथकं नि:शेष भाषात्मकं ॥ दूरासन्नसमं निरूपमं जैनं वचः वातु वः ॥95॥ (आचार सारः-पृ० 89) अन्वयार्थ-(गंभीर) गंभीर (मधुरं) कर्ण प्रिय (मनोहरतरम्) मनोहरतर (दोष व्ययेतं) दोष रहित (हित) हितकारी (कंठौष्ठादिवचो निमित्त रहितं) कण्ठ और तालु आदि वचन के निमित्त से रहित (नोवातरोधोद्गतम्) वातरोधज नित नहीं है (स्पष्टम्) स्पष्ट है (तत्तदभीष्ट वस्तु कथक) उस-उस अभीष्ट वस्तु का कहने वाला है (निःशेष भाषात्मक) नि:शेष भाषात्मक है। (दूरासन्नसम) एक योजनान्तर में स्थित दूर और निकट को समान श्रवण गोचर होने वाले (निरूपमम्) उपमातीत (जैन) जिनेन्द्र भगवान के (वचनं) स्वरनाम कर्म वर्गणा जनित वचन (वः) तुम्हारी (पातु) रक्षा करें। वह जिनेन्द्र का वचन जो गंभीर है, मधुर है, अतिमनमोहक है, हितकारी है, कंठ-ओष्ठ आदि वचन के कारणों से रहित है, पवन के रोकने से प्रकट है, स्पष्ट है, परम उपकारी पदार्थों का कहने वाला है, सर्वभाषामयी है, दूर व निकट में समान सुनाई देता है, वह उपमा रहित है सो वह श्रुत हमारी रक्षा करें। दिव्य ध्वनि का एकानेक रूप एक तयोऽपि च सर्व नृभाषाः सोऽन्तरनेष्ट बहूश्च कुभाषाः । अप्रतिपत्तिमपास्य च तत्वं बोधयति स्म जिनस्य महिम्ना 1700 आदि पुराण । पर्व 23-पृ० 5491
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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