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________________ [ 43 ] ऊपर उठ जाता है। केवल ज्ञान के बाद पुनः पापकर्म का बंध नहीं होता है उसके कारण पुनः कभी भी अर्हन्त भगवान (तीर्थङ्कर) भू पृष्ठ पर नहीं आते हैं। केवल ज्ञान के अतिशय जोयणसदमज्जावं सुभिक्खदा चउदिसासु णियठाणा । णहयलगमणा महिंसा भोयणउवसग्गपरिहीणा ॥908॥ . ति. प.-भाग-2-पृ. 278 सव्वाहिमुहट्ठियत्तं अच्छायत्तं अपम्हफंदित्तं । विज्जाणं ईसत्तं समणहरोमत्तणं सरीरम्मि ॥909॥ अट्ठरसमहाभासा खुल्लयभासा सयाइ सत्त तहा। अक्खर अणक्खरप्पय सण्णीजीवाण सयलभासाओ ॥910॥ एदासि भासाणं तालुवदंतो? कंठवावारे । परिहरिय एक्क कालं भव्वजणे दिव्वभासित्तं ॥911॥ पगदीए अक्खलिदो संसत्तिदयम्मि णवमुत्ताणि । णिस्सरदि णिरूवमाणो दिव्वझुणी जाव जोयणयं ॥912॥ अवसेस काल समए गणहरेदविंदचक्कवट्टीणं । पण्हाणुरुवमत्थं दिव्वझुणी सत्तभंगीहि ॥913॥ छद्दव्वणवपयत्थे पंचट्ठीकायसत्ततच्चाणि । णाणाविहहेहि दिव्वझुणी भणइ भव्वाणं ॥914॥ धादिक्खएण जादा एक्कारस अदिसया महच्छरिया। एदे तित्थयराणं केवलणाणम्मि उष्पण्णे ॥915॥ अपने पाप से चारों दिशाओं में एक सौ योजन तक सुभिक्षता, आकाश गमन, हिंसा का अभाव, भोजन का अभाव, उपसर्ग का अभाव, सब की ओर मुख करके स्थित होना, छाया रहितता, निनिमेष दृष्टि, विद्याओं की ईशता, संजीव होते हुये भी नख और रोमों का सामान होना, अठारह महाभाषा, सात सौ क्षुद्रभाषा तथा और भी जो संज्ञी जीवों की समस्त अक्षर अनक्षरात्मक भाषायें हैं उनमें तालु, दाँत ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित होकर एक ही समय भव्यजनों को दिव्य उपदेश देना। भगवान जिनेन्द्र की स्वभावतः अस्खलित और अनुपम दिव्य ध्वनि तीनों संध्याकालो में नव मुहूत्र्तों तक निकलती है और ? योजन पर्यन्त जाती है। इसके अतिरिक्त गण धर देव इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरुपणार्थ वह दिव्य ध्वनि शेष समयों में भी निकलती है। वह दिव्य-ध्वनि भव्य जीवों को छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरुपण करती है । इस प्रकार घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए ये महान् आश्चर्यजनक ग्यारह अतिशय तीर्थंकरों को केवल ज्ञान के उत्पन्न होने पर प्रगट होते हैं ।।908-9151 योजन शत इक में सुभिख, गगन-गमन मुख चार । नहिं अदया उपसर्ग नहीं, नाहीं कवलाहार ॥
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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