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________________ [ 32 ] भगवान् के निर्मल शरीर पर पड़कर उसी में प्रतिबिंबित हुई जल की धारायें ऐसी शोभायमान हो रही थीं कि मानो अपने को बड़ा भाग्यशाली मानकर उन्हीं के शरीर के साथ मिल गई हों। गिरेरिव विभोमूनि सुरेन्द्रानिपातिताः । विरेजुनिराकारा धाराः क्षीरार्णवाम्भसाम् ॥127॥ भगवान के मस्तक पर इन्द्रों द्वारा छोड़ी हुई क्षीर समुद्र के जल की धारा ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो किसी पर्वत के शिखर पर मेघों द्वारा छोड़े हुए सफेद झरने ही पड़ रहे हों। तीर्थकर का लाञ्छन अभिषेक के पश्चात् भगवान् के दाहिने अंगूठे में जो विशिष्ट चिन्ह रहता है। पहिचान के लिये उसको लाञ्छन रूप से इन्द्र घोषणा करता है। जैसे—आदिनाथ (ऋषभदेव) के दाहिने अंगूठे में ऋषभ (बैल) का चिन्ह था। इसीलिये आदिनाथ भगवान् का लाञ्छन वृषभ है। तीर्थंकर के आभूषण निर्माण करण्ड इन्द्र भगवान को स्वर्ग के पिटारों से निर्मित दिव्य सुन्दर वस्त्र आभूषण पहनाता है। तस्साग्गे इगिवासो छत्तीसुदओ सबीढ वज्जमओ। माणत्थंभो गोरुद वित्थारय बारकोडिजुदो ॥519॥ त्रिलोकसार-बैमा-लोकाधिकार पृ० 546 सभा मण्डप के आगे एक योजन (8 मील) विस्तीर्ण, चौड़ा 36 योजन (266 मील) ऊँचा, पाद पीठ से युक्त वज्रमय मानस्तंभ है। इसका आकार गोल और व्यास एक योजन अर्थात् 4 कोश है। इसमें एक-एक कोश विस्तार वाली बारह धारायें हैं। चिट्ठन्ति तथ्य गोरुद चउत्थ वित्थार कोसदीहजुदा । तित्थयरा भरणचिदा करण्डया रयण सिक्कधिया 1520॥ उस मान स्तम्भ पर एक कोस लम्बे और पाव कोस विस्तृत रत्नमयी सींकों के ऊपर तीर्थंकरों के पहिनने योग्य अनेक प्रकार के आभरणों से भरे हुए करण्ड (पिटारे) स्थित हैं। तुरिय जुद विजुद छज्जोय णाणि उरि अधोविण करण्डा । सोहम्मदुगे भरहेरावदतित्थयर पडिबद्धा ॥521॥ साणक्कुमार जुगले पुष्ववरविदेह तित्थयर भूसा। ठविदाच्चिदा सुरेहि कोडी परिणाह बारसो ॥522॥
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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