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________________ [ 22 ] मिदुहिदमधुरालाओ, साभाविय अदिसयं च दह भेदं । एवं तित्थयराणं जम्मग्गहणादि उप्पणं ॥1907 (खेद रहितता) 1. स्वेद रहितता 2. निर्मल शरीरता तिलोयपष्णत्ति / अ० 4 3. दूध के समान धवल रुधिर 4. आदि का वज्रवृषभनाराच संहनन 5. समचतुरस्ररूप शरीर संस्थान 6. अनुपम रूप 7. नृप चम्पक की उत्तम गंध के समान गंध का धारण करना 8. 1008 (एक हजार आठ) उत्तम लक्षणों को धारण करना 9. अनन्त बल-वीर्य, तथा 10. हित - मित एवं मधुर भाषण । स्वाभाविक अतिशय के 10 भेद हैं । यह 10 भेद रूप अतिशय तीर्थंकरों के जन्म ग्रहण से ही उत्पन्न हो जाते हैं । अतिशय रूप सुगन्ध तन, नाहि पसेव निहार । प्रिय हित वचन अतुल्यबल, रुधिर श्वेत आकार ॥ लक्षण सहस रु आठ तन, समचतुष्क संठान । वज्रवृषभ नाराच जुत, ये जनमत दस जान ॥ अतिशय सुन्दर रूप पूर्व भव में भावित उद्दात विश्व प्रेम से प्रेरित 16 भावनाओं के कारण तीर्थंकर भगवान सर्वोत्कृष्ट सातिशय तीर्थंकर पुण्य कर्म का संचय किए थे उसके कारण ही उनके गर्भ के छह महीने पहले से ही रत्नवृष्टि हुई । जन्मावसर पर सम्पूर्ण विश्व, शान्ति रस से प्लावित हो गया । उस पुण्य कर्म से उनका शरीर अद्वितीय, 1008 सुलक्षणों से मण्डित विश्व की अनुपम सुन्दरता सहित था । इनके शरीर के अपूर्व सुन्दरता का कारण बताते हुए मानतुंगाचार्य, भक्तामर स्त्रोत में निम्न प्रकार बताते हैं भक्तामर स्त्रोत ॥ यैः शान्तरागरुचिभिः परमाणुभिस्त्वम् । निर्मापितस्त्रिभुवनंक ललाम भूत ॥ तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां । यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ।।12। इस तीन लोक में जितने शान्त, सुन्दर, रुचिकर, परमोत्कृष्ट, शुभ परमाणु थे, उनके समूह से ही भगवान के अद्वितीय मनमोहककारी ललामभूत शरीर का निर्माण हुआ । सम्पूर्ण उत्कृष्ट शुभ परमाणुओं से भगवान के शरीर का निर्माण होने से इस विश्व में पुण्य परमाणु शेष नहीं रहे । इसीलिए भगवान के शरीर के समान अन्य सुन्दर शरीर इस विश्व में नहीं है अर्थात् जितने शुभ परमाणु थे उससे भगवान
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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