SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ 9 ] इस प्रकार अढ़ाई द्वीप में पांच महाविदेह सम्बन्धी 160+5 भरत +5 ऐरावत =170 कर्मभूमि हैं । यदि एक-एक क्षेत्र में एक-एक तीर्थंकर विद्यमान रहकर धर्म प्रवर्तन करते हैं तो एक-साथ एक काल में 170 तीर्थंकर अधिक से अधिक अढ़ाई द्वीप में धर्म-प्रवर्तन करते हैं । विदेह में कम से कम 20 तीर्थकर विद्यमान रहते हैं। किन्तु भरत ऐरावत क्षेत्र में धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक तीर्थंकर के अभाव में अल्प या दीर्घकाल तक धर्म तीर्थ का विच्छेद हो जाता है, जिस प्रकार सूर्य के अभाव में अन्धकार फैल जाता है। तीर्थकर के स्वरूप तीर्थंकर एक धर्म-क्रान्तिकारी, साम्यवादी, अहिंसा-दया के अवतार समाजसुधारक, रूढ़िवादी-मिथ्यापरम्परा, अन्धविश्वास आदि के उन्मोलक प्रज्ञा के धनी, सत्योपासक, युगदृष्टा, युग पुरुष, पुण्यश्लोका, महापुरुष होते हैं । कलिकाल सर्वज्ञ बहुभाषाविद्, महाप्राज्ञ, वीर सेनाचार्य विश्व के अद्वितीय शास्त्र (ग्रन्थराज) धवलाग्रन्थ में तीर्थंकर के लक्षण बताते हुए निम्नोक्त प्रकार कहे हैं सकल भुवनेक नाथस्तीर्थ करो वर्ण्यते मुनिवरिष्ठः विधु धवल चामराणां तस्य स्थाढे चतुःषष्टि ॥ 44॥ जिनके ऊपर चन्द्रमा के समान धवल चौंसठ-चंवर दुरते हैं, ऐसे सकल भुवन के अद्वितीय स्वामी को श्रेष्ठ मुनि तीर्थंकर कहते हैं। तित्थयरो चदुणाणि सुरमहिदो सिजिन दन्षय धुवम्मि । अणिगूहिद वल विरिओ तवोविद्याणम्मि उज्जमदि ॥ 304॥ 'तित्थयरो' तीर्थंकरः तरंति संसारं येन भव्यास्ततीर्थ । केचन तरंति श्रुतेन गणधरै वलिंबन भूतैरति श्रुतं गणधरा वा तीर्थमित्युच्यते । तदुभय करणा तीर्थंकरः अथवा 'तिसु तिदितितित्थ' इति व्युतपत्ती तीर्थशब्देन मार्गों रत्नत्रयात्मकः उच्यते तत्करणातीर्थ करो भवेति । 'चउणाणी' मतिश्रुतावधिमनः पर्यय ज्ञानवान्' 'सुरमहिदो' सुरैश्चतुः प्रकारैः पूजित: स्वर्गावतरण जन्माभिषेकपरिनिष्क्रमणेषु । सिझिदव्वमधुवम्मि नियोग भाविन्यां सिद्धावपि । तथापि 'अणिगूहिय वल विरिओ' अनुपम बल वीर्यः । 'तवोविहाणम्मि' तपः समाधानो । 'उज्जमदि' उद्योग करोति ।। 304 ।। जिसके द्वारा भव्य जीव संसार को तिरते हैं, वह तीर्थ है । कुछ भव्य श्रुत अथवा आलम्बनभूत गणधरों के द्वारा संसार को तिरते हैं। अतः श्रुत और गणधरों को भी तीर्थ कहते हैं । इन दोनों तीर्थों को जो करते हैं, वे तीर्थंकर 'अथवा' तिसु तिदित्ति तित्थं' इस व्युत्पत्ति के अनुसार तीर्थ शब्द से रत्नत्रयरूप मार्ग को कहा जाता है । उसके करने से तीर्थंकर होता है । वे मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्ययज्ञान के धारी होते हैं। स्वर्ग से गर्भ में आने पर जन्माभिषेक और तपकल्याणक में चार प्रकार के देव उनकी पूजा करते हैं । उनको मोक्ष की प्राप्ति नियम से होती है फिर भी वे अपने बल और वीर्य को न छिपाकर तप के अनुष्ठान में उद्यम करते हैं। 304॥..
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy