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________________ [ 6 ] 1 उपनिषद् के लेखक प्रचार-प्रसारक एवं अनुकरण करने वाले महापुरुषों ने भी बाह्य आडम्बर क्रिया का अवलम्बन लेकर दुनिया को आध्यात्मिक ज्योति प्रदान की । उनमें अवधूत, हंस परमहंस, अलेख आदि अनेक — भेद हैं । उच्च साधक बाह्य समस्त परिग्रह के साथ-साथ वस्त्र - लंगोट मात्र का भी परित्याग कर बालकवत् पूर्ण दिगम्बर रहते थे । सुप्रसिद्ध व्यासदेव के पुत्र आध्यात्मिक प्रेमी महर्षि शुकदेव आजन्म नग्न थे । विश्व संस्कृति में भारतीय संस्कृति सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि भारतीय संस्कृति में पूर्ण आध्यात्मिकता ही भारतीय संस्कृति का प्राण है । यदि भारतीय संस्कृति में से आध्यात्मिकता को निकाल दिया जाये तो वह निर्जीव हो जायेगी और आध्यात्मिक के मूर्तिमान स्वरूप भारतीय तत्व वेत्ता ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न ऋषि मुनि साधु सन्त होते हैं। अतः साधु सन्त ही भारतीय संस्कृति के प्राण हैं । भारतीय संस्कृति माने साधु संस्कृति है । जब तक हम साधुओं को आदर-सम्मान की दृष्टि से नहीं देखेंगे; उनकी रक्षा, सेवा उनकी समृद्धि नहीं करेंगे तब तक हम भारतीय संस्कृति की सुरक्षा समृद्धि नहीं कर सकते हैं । भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक साधु सन्त की संस्कृति होने के कारण भारतीय संस्कृति के अध्ययन के लिये, परिज्ञान के लिये साधुओं की पवित्र जीवन गाथा का अध्ययन अनिवार्य ही है । इस दृष्टिकोण को रखकर भारतीय सभ्यता, संस्कृति को जानने के लिए इस प्रकरण में भारतीय संस्कृति के उन्नायक, समर्थ प्रचारक एवं प्रसारक कुछ महापुरुषों के पवित्र - जीवन चरित्र प्राचीन प्रामाणिक आचार्यकृत ग्रन्थों से कर रहे हैं । इन महापुरुषों के जीवन से उनके चरित्र, पवित्र आचरण के साथ-साथ सभ्यता-संस्कृति-धर्म नीति-नियम, सदाचार, ज्ञान-विज्ञान, शिक्षादीक्षा, कला-कौशल आदि का परिज्ञान होता है । उनके पवित्र आदर्श चरित्र अध्ययन अन्तरङ्ग से उनके जैसे बनने की अन्त: प्रेरणा स्वतः जागृत होती है । उस प्रेरणा से प्रेरित होकर प्रगतिशील मानव उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए उनके जैसे बन जाता है । यह ही पवित्र पुरुषों की पवित्र गाथा के अध्ययन का मुख्य उद्देश्य है- एक मराठी कवि ने कहा है ――――――― महापुरुष होऊन गेले त्याचे चारित्र पहा जरा । आपण त्यांचे समान व्हावे हा च सापड़े बोधखरा ॥ अनेक महामानव इस धरती पर हो गए हैं, उनके चरित्र के अवलोकनअध्ययन से हम भी उनके जैसे बनें इसमें ही यथार्थ सारभूत ज्ञान है अर्थात् उनका चरित्र अध्ययन करके उनके सदृश होना ही मुख्य उद्देश्य होना चाहिए । केवल मनोरंजन के लिये महापुरुषों के चरित्र के अध्ययन से विशेष लाभ नहीं होता है । महापुरुष के अध्ययन से यदि हम कुछ नैतिक आध्यात्मिक उन्नति नहीं करते हैं तो हमारा अध्ययन एक मनोरंजन-कारी व्यसन रूप ही है । प्राचीनकाल में पवित्र पुरुषों के जीवन चरित्र का, विद्यापीठ, गुरुकुल, घर-घर में अध्ययन होता था । भारत के किशोर नवयुवक- नवयुवतियों, प्रौढ़ अबाल वनिता काल्प
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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