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________________ [ xiii ] बहुगुण-सम्पद सकलं परमतमपि मधुर-वचन-विन्यास-कलम । नय-भक्तयवतंस-कलं तव देव ! मतं समन्तभद्रं सकलम् ॥8॥ स्वयम्भ स्तोत्र ॥ हे वीर जिनदेव ! जो परमत है-आपके अनेकान्त-शासन से भिन्न दूसरों का शासन है, वह मधुर वचनों के विन्यास से-कानों को प्रिय मालूम देने वाले वाक्यों की रचना से मनोज्ञ होता हुआ भी, प्रकट रूप में मनोहर तथा रुचिकर जान पड़ता हुआ भी, बहुगुणों की सम्पत्ति से विहल है—सत्य शासन के योग्य जो यथार्थ वादिता और पर-हित प्रतिपादनादि-रूप बहुत से गुण हैं उनकी शोभा से रहित है--सर्वथैकान्तवाद का आश्रय लेने के कारण वे शोभन गुण उसमें नहीं पाये जाते-और इसलिये वह यथार्थ वस्तु के निरूपणादि में असमर्थ होता हुआ वास्तव में अपूर्ण, सवाध तथा जगत् के लिये अकल्याणकारी है । किंतु आपका मत-शासन-नयों के भङ्ग-स्यादस्तिनास्त्यादि रूप अलंकारों से अलंकृत है अथवा नयों की भक्ति-उपासना रूप आभूषण को प्रदान करता है-अनेकान्तवाद् का आश्रम लेकर नयों के सापेक्ष व्यवहार की सुदंर शिक्षा देता है, और इस तरह-यथार्थ वस्तु-तत्त्व के निरूपण और परहित-प्रतिपादनादि में समर्थ होता हुआ, बहुगुण-सम्पत्ति से युक्त है-(इसी से) पूर्ण है और समन्तभद्र है-सब ओर से भद्ररूप, निर्बाधतादि विशिष्ट शोभा सम्पन्न एवं जगत् के लिये कल्याणकारी है। - प्रत्येक द्रव्य अनेक गुण, धर्म, स्वभाव, अवस्थाओं का अखण्ड पिण्ड होने के कारण प्रत्येक द्रव्य अनेकान्त स्वरूप है । उसकी परूपणा केवल एक अपेक्षा से (नय, दृष्टिकोण, भाव) नहीं हो सकती है। इसीलिए एक ही अपेक्षा को लेकर संपूर्ण वस्तु का कथन करना आंशिक सत्य होते हुए भी पूर्ण सत्य नहीं है। आंशिक सत्य को आंशिक सत्य मानना, सत्य होते हुये भी पूर्ण सत्य मानना मिथ्या है। जैसे-रामचन्द्र दशरथ की अपेक्षा पुत्र हैं, लव-कुश की अपेक्षा पिता हैं, लक्ष्मण की अपेक्षा भ्राता हैं, विभीषण की अपेक्षा मित्र हैं, रावण की अपेक्षा शत्रु आदि । इस सापेक्ष कथन से रामचन्द्र पुत्र, पति आदि होते हुए भी केवल पुत्र या पति स्वरूप नहीं हैं, भले सीता की अपेक्षा पति हैं परन्तु इस सापेक्ष सत्य को सर्वत्र सत्य मानकर दशरथ, विभीषण, लक्ष्मण, रावण की भी अपेक्षा पति मानने पर मिथ्या ठहरता है। इसी प्रकार एकान्त हठाग्राही वस्तु स्वरूप के एक सत्यांश को पकड़कर अन्य सत्यांश को नकार दिया जाता है तब वहाँ वस्तु स्वरूप का विप्लव होने के कारण अनेक अनर्थ उत्पन्न हो जाते हैं । इसलिए अनेकान्तात्मक सापेक्ष सिद्धान्त ही मंगल, भद्र, कल्याणकारी सिद्धान्त है। उपर्युक्त सर्वोदय समन्तभद्र तीर्थ के प्रवर्तक शान्तिमय क्रान्ति के अग्रदूत सर्वजयी आत्मा के लिए सुखेच्छु, मुमुक्षु, गुणग्राही, भव्यात्मा के हृदय में स्वयमेव समर्पित होकर उन पवित्रात्मा का गुणगान करने के लिये भावरूपी तरंगें तरंगित होने लगती हैं
SR No.032481
Book TitleKranti Ke Agradut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanak Nandi Upadhyay
PublisherVeena P Jain
Publication Year1990
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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