SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पापों के प्रति धिक्कार भावना जीवित है तब तब भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। पाप के प्रति धिक्कार ही एक बार हमें पाप-नाश करने की शक्ति प्रदान करेगी। धर्म के समस्त शास्त्र छिन जाने पर भी यदि पापों के प्रति धिक्कार की भावना जीवित रहेगी तो वह आत्मा एक बार धर्म-प्रसंग की इस रण-भूमि में अवश्य ही विजयी होगी। पापों की जननी, पाप-निर्भीकता अत: हम कह सकते हैं कि समस्त धर्मों की जननी पाप भीरूता है और समस्त पापों की जननी है - पाप निर्भीकता। हिंसा, झूठ, चोरी आदि समस्त पापों को यदि दीमक की उपमा दी जाये तो पापनिर्भीकता को दीमक की महारानी अवश्य कह सकते हैं। यदि धर्म का प्रारम्भ पाप-भीरुता से होता है तो समस्त पापों का प्रारम्भ पाप-निर्भीकता से होता है, यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है। हिंसा आदि पाप निश्चित रूप से बुरे हैं जिनसे आत्मा के सद्गुण नष्ट होते हैं, जीव की भयंकर दुर्गति होती है, परन्तु यह हिंसा, असत्य आदि पाप तो पच्चीस-पच्चास दीमकों के समान हैं। जीवन के ऐसे कुछ पाप नष्ट किये जायें उनसे पूण-विराम मान लेने की आवश्यकता नहीं है। यदि 'पाप-निर्भीकता' रूपी दीमकों की महारानी, सम्राज्ञी जीवित रहे तो समझ लेना चाहिये कि नूतन-नूतन दीमकों की उत्पत्ति होती ही रहेगी। अत: सर्व प्रथम तो 'पाप-निर्भीकता' रूपी दीमकों की महारानी को ही समाप्त करनी चाहिये, अर्थात् पाप-निर्भीकता को आत्मा में से निष्कासित करके पापों से डरना चाहिये, पापों की परछाई से भी सौ कोस दूर रहना चाहिये। यदि इस प्रकार की पाप-भीरुता उत्पन्न होगी तो कदाचित् जीवन में से समस्त पाप नष्ट नहीं होंगे, तो भी मुक्त होने का बहुत बड़ा सुअवसर जीवित रहेगा। ___ पाप-भीरुता विहीन चाहे जितने धर्म एकत्रित होकर भी हमारा इस भव-भ्रमण से उद्धार नहीं कर सकते, यह बातें समझ लेने योग्य है। पापों से बचने के लिये निमित्तों से दूर रहें प्रश्न - पापों से बचने के लिये क्या करना चाहिये? क्या उसके लिये कोई सरल एवं श्रेष्ठ उपाय है? उत्तर - हाँ, अवश्य है, पापों से बचने का सर्वश्रेष्ठ एवं सुन्दर उपाय है कि पापों के निमित्तों से सदा दूर रहना। उस पपीते से भयभीत फूलचन्द सेठ को पपीते से कैसा भय लगता था? पपीतों का ठेला RRORSCORC74909890900
SR No.032476
Book TitleMangal Mandir Kholo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevratnasagar
PublisherShrutgyan Prasaran Nidhi Trust
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy