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________________ RECERe150909890 पिता की मृत्यु के पश्चात् एकत्रित समस्त परिवार ने सुलस को अपने पिता का धंधा सम्हालने के लिये परामर्श दिया, तब उसने उन्हें स्पष्ट इनकार कर दिया। यही बात बार बार कहने पर सुलसने अन्त में परिवार जनों को स्पष्ट कह दिया, “मैं पिता के कुँए में डूब मरना नहीं चाहता।" सब स्वजनों ने सम्मिलित होकर कहा, "सुलस! यदि तू यह मानता हो कि तेरे पिता का धंधा पाप का था और उस पाप का कल तुझे भोगना पड़ेगा, तो हम तुझे वचन देते हैं कि पाप का फल भोगने में हम सब तेरे भागीदार होंगे, फिर तुझे क्या आपत्ति है?" इस प्रश्न का कुछ भी उत्तर दिये बिना वह तुरन्त भीतर के कक्ष में गया और तक तीव्र नोकवाला भाला ले आया। सबके देखते ही देखते उसकी तीव्र नोक उसने अपने पाँव में घुसेड़ दी। भाले की नोक पाँव के आर पार हो गई। वह जोर जोर से चीखने लगा, "अरे, बचाओ, बचाओ, कोई तो मेरी इस पीड़ा के भागीदार बनो।" तब सब बोल उठे, "सुलस! भाला तेरे पाँव में घुसे और उसका दु:ख हम लें। यह कैसे संभव है? यह दु:ख तो तुझे ही भोगना पड़ेगा।" तब हँसी का ठहा का मारते हुए सुलस ने कहा, "यदि भाला लगने के दुःख में आप मेरे भागीदार नहीं हो सकते, तो फिर मेरे पिता के पाप धंधे से मुझे लगने वाले पापों के फलस्वरूप जो दुःख मुझे भोगने पड़ेंगे, उनमें आप भागीदार कैसे हो सकेंगे? इस कारण ही मैं अपने पिता का धंधा नहीं करना चाहता।" __कीचड़ में उगे हुए कमल के समान पापी कालसौकरिक के पुत्र के रूप में उत्पन्न पुण्यात्मा सुलस की यह कैसी उत्तम पाप भीरुता है। चंद्रयश नृप की पाप-भीरुता मुझे स्मरण हो आया है उन चंद्रयश नृपका, जिन्होंने प्रतिज्ञा-भंग करने का पाप करने के बदले अपने जीवन को अन्त करना स्वीकार किया। ___ प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री आदिनाथ के वे पोते थे। उन्हें धर्म अत्यन्त प्रिय था। वे जो भी प्रण करते उसे प्राण देकर भी पूर्ण करते। उनके प्राण-पालन की अटलता की ख्याति देवलोक में भी पहुँच चुकी थी। उनके प्राण-पालन की स्वयं इन्द्र ने भी अत्यन्त प्रशंसा की थी। इस पर दो देवियों की महाराजा चंद्रयशा के प्राण-पालन की दृढ़ता की परीक्षा लेने की इच्छा हुई। उन दोनों ने मनुष्य लोक की अत्यन्त सुन्दर स्त्रियों का रूप धारण किया और वे राजा की नगरी में आई। उस समय चंद्रयश नृप जिन-भक्ति में लीन थे। वे दोनों देवियों वहाँ पहुँच गई और परमात्मा की अत्यन्त भक्ति करने का ढोंग करती हुई जिन-पूजा आदि करने लगी। राजा दोनों रमणियो का रूप एवं उनकी जिन-भक्ति देखकर मोहित हो गया और उन्होंने उन दोनों के समक्ष
SR No.032476
Book TitleMangal Mandir Kholo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevratnasagar
PublisherShrutgyan Prasaran Nidhi Trust
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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