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________________ मार्गानुसारी के गुणों में द्वितीय स्थान पर है - शिष्टाचार-प्रशंसा अर्थात् शिष्ट पुरुषों के आचरण की प्रशंसा करना। ___ अत: सर्व प्रथम प्रश्न यह उपस्थित होता है कि शिष्ट किसे कहा जाये? अत्यन्त सरल उत्तर है इसका - शिष्ट पुरुष अर्थात् अत्यन्त सज्जन मनुष्य। परन्तु आज तो सभी सज्जन प्रतीत होते हैं। उल्टे बाहर से सज्जन प्रतीत होने वाले व्यक्ति भीतर से प्रथम श्रेणी के दुर्जन होते हैं और कभी कभी बाहर से दुर्जन प्रतीत होने वाले मनुष्य सचमुच सज्जन होते हैं। वर्तमान समय में तो धन की शक्ति समाज में इतनी व्यापक होती जाती है कि समस्त नाप-तोल धन के माध्यम से ही होते आये हैं और इस कारण ही अधिक धनी व्यक्ति अधिक शिष्ट (सज्जन) माना जाने लगा है। ऐसे बनावटी शिष्ट मनुष्यों के अच्छे अथवा बुरे आचारों की खुले आम प्रशंसा भी होती है और इस कारण ऐसे बनावटी शिष्ट आचारों का अनुकरण करने की फैशन चल पड़ी है। अधिक गहराई से विचार करने पर ज्ञात होता है कि लोगों में से परलोक के प्रति श्रद्धा समाप्त होती जा रही है। इसलोक के अतिरिक्त एक दूसरा भी लोक है जहाँ जाकर यहाँ के भले-बुरे फल जीव को भोगने पड़ते हैं। इस सत्य को स्वीकार करने का अर्थ ही है परलोक-श्रद्धा। इस प्रकार की परलोक-श्रद्धा का आज अधिक अंश में लोप होता प्रतीत होता है। जब परलोक की श्रद्धा समाप्त हो जाये तो फिर पापों का भय कैसे रह सकता है? "मैं ऐसे पाप कर रहा हूँ तो परलोक में मेरा क्या होगा?" यह विचार पापों से बचने का है। जब समाज में से परलोक के प्रति श्रद्धा विलीन होती जाती है, फिर पापों से भय कैसे लगे? अर्थ प्रजा की खुमारी की नाशक है परलोक-श्रद्धा और पाप-भीरुता, इन दो गुणों का अभाव और इस कारण ही इस लोक की सुख-सुविधाओं के साधन जिससे खरीदे जा सकते हैं उस 'धन' को ही समाज ने जीवन का सर्वस्व मान लिया। इसलिये जो अधिक धनी वह समाज का अधिक सम्माननीय व्यक्ति, शिष्ट व्यक्ति सबसे बड़ा सज्जन माना जाने की उल्टी गणना चल निकली। इस प्रकार के गणित के आधार पर ऐसे तथाकथित शिष्ट मनुष्यों की प्रशंसा होने लगी, उनके आसपास उनकी चमचागिरी करने वाले खुशामदखोर चक्कर लगाने लगे, जिससे वास्तविक शिष्ट पुरुषों की अवहेलना होने लगी। फिर वास्तविक शिष्ट कौन होता है? शास्त्रकारों द्वारा बताई गई शिष्ट पुरुष की व्याख्या कुछ भिन्न बात ही बताती है। सच्चे अर्थ में यदि शिष्ट बनना हो तो दूसरे शिष्ट पुरुषों की सेवा करनी पड़ती है। शिष्टों की सेवा किये बिना शिष्ट नहीं बना जा सकता। OCOGES 36909090909
SR No.032476
Book TitleMangal Mandir Kholo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevratnasagar
PublisherShrutgyan Prasaran Nidhi Trust
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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