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________________ लखपति व्यक्ति दस लाख का स्वामी बनने का, दस लाख का स्वामी करोड़पति बनने का, करोड़पति अरबपति बनने का और अरबपति खरबपति बनने का स्वप्न देखना ही रहता है। अर्थ की वासना का कहीं भी अन्त नहीं है। इस कारण ही इसे 'अधमाधम' कहा गया है। __प्राप्त उत्तम मानव-भव यों ही धन-प्राप्ति की लालच ही लालच में नष्ट हो जाये और उस धन को प्राप्त करने के लिये समस्त प्रकार के पाप जीवन पर नियन्त्रण कर लें, यह अत्यन्त अयोग्य ही इस प्रकार न हो जाये इसलिये, उत्तम जीवों का जीवन नष्ट न हो जाये इसलिये शास्त्रकारों ने मार्गानुसारी गुणों में सर्वप्रथम 'न्याय-सम्पन्न-वैभव' को बताया है। यदि 'वैभव' प्राप्त करना ही है तो वह भी न्याय-नीति से ही प्राप्त करना चाहिये, अनीति से कदापि नहीं। यदि इतना दृढ संकल्प ही कर लिया जाये तो धन के प्रति भयानक लालसा को भी निश्चित रूप से धक्का लग सकता है और हम अनेक पापों से बच सकते हैं। दूसरे को दुःख पहुँचाने वाला सुखी नहीं होता अनीति का धन जीवन को शान्ति क्यों नहीं प्रदान करता? यह समझने योग्य है। जब जब जो जो मनुष्य अनीति का आचरण करते हैं, अन्याय, मेल-मिलावट, झूठ अथवा विश्वासघात करते हैं उनसे जिनके साथ अनीति आदि का आचरण किया जाता है उन्हें निश्चित रूप से आघात आदि लगता है। जिसके साथ अनीति की गई हो, उसे जब अमक समय के पश्चात् पता लगता है तब उसे घोर कष्ट होता है और अपने साथ अनीति करने वाले के प्रति उसके हृदय में घोर तिरस्कार की भावना उत्पन्न होती है। अब यदि आपने दूसरे को कष्ट पहुँचाया तो आप सुख किस प्रकार प्राप्त करोगे? प्रकृति का यह एक नियम है कि "जो दूसरे को कष्ट पहुँचाता है वह स्वयं दुःखी होता है, जो दूसरे को सुख पहुँचाता है वह स्वयं सुख प्राप्त करता है, जो दूसरे की हत्या करता है, उसकी स्वयं की हत्या होती है और दूसरे को जीवन प्रदान करने वाला स्वयं जीवन प्राप्त करता है।" अनीति करके आप दूसरे के लिये दुःखदायी बने हैं तो आप सुखी कैसे हो सकेंगे? और कदाचित् आपका पापानुबंधी पुण्य-कर्म भारी होगा तो उस पुण्योदय से आप वैभवशाली बन सकेंगे, धनी बन जायेंगे, परन्तु उस वालकेश्वर की धनवान स्त्री की तरह भीतर से अत्यन्त अशान्त बन चुके होंगे, आपको कहीं भी सुख और शान्ति प्राप्त नहीं होगी। "हाय ! मेरे बीस हजार!" रमेश और सुरेश दो सगे भाई थे। रमेश बड़ा था और सुरेश छोटा था। वे दोनों साथ साथ धंधा करते थे। उनकी बम्बई में किराने की बड़ी दूकान थी। बारी बारी से दोनों भाई दूकान पर बैठते PROCOGES 2 GOOD92906
SR No.032476
Book TitleMangal Mandir Kholo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevratnasagar
PublisherShrutgyan Prasaran Nidhi Trust
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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