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________________ se 1000000000 शास्त्रकारों का सर्व प्रथम उपदेश तो यही है कि- 'धनोपार्जन ही पाप है।' धन के बिना जीवन यापन करने की धन्य स्थिति जैन मुनियों की ही है। उनका जीवन विश्व में एक आश्चर्य स्वरूप कहा जा सकता है। धन के बिना भी वे आनन्दमय जीवन जी सकते हैं और बिना सन्तानों के भी वे समस्त विश्व के साथ पारिवारिक भावना के साथ विश्व मैत्री की आराधना करते रहते हैं। जो लोग इस प्रकार का धन्य मुनि-जीवन नहीं जी सकते, उन संसारी मनुष्यों के लिये धनोपार्जन अत्यन्त अनिवार्य हो जाता है। यदि संसारी मनुष्य 'धन उपार्जित करना पाप है' यह सोच कर भिक्षा माँगने लगें तो वह अत्यन्त बुरा है । श्रावक भिक्षा माँग कर जीवन यापन करे वह अत्यन्त बुरा है। इसकी अपेक्षा नीतिपूर्वक धन उपार्जन करना कम बुरा है। बड़ी बुराई का त्याग करने के लिये छोटी बुराई अपनानी पड़े तो उसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। श्रावक का लक्ष्य सदा धनोपार्जन का नहीं है - चाहे वह नीति से ही क्यों न हो। उसका लक्ष्य तो साधुत्व प्राप्त करना ही होता है। परन्तु जब तक यह लक्ष्य सफल नहीं हो तब तक तो नीतिपूर्वक धनोपार्जन की प्रवृत्ति उसे शुरु ही रखनी पड़ती है न ? अब जब धनोपार्जन करना ही आवश्यक है तो शास्त्रकार उन आत्माओं को कहते हैं कि - "यदि तुम्हें धनोपार्जन करना ही पड़ता हो तो उसे नीतिपूर्वक ही उपार्जन करना, अनीति से कदापि उपार्जित मत करना | धनोपार्जन तक पाप है और उसमें अनीति करना उससे भी अधिक पाप है। इस प्रकार के दो दो पाप तो तू मत ही करना । " इस प्रकार शास्त्रकार संसारी मनुष्य की धनोपार्जन करने की प्रवृत्ति को नीति नामक धर्म से युक्त करने की बात कहते हैं। अतः स्पष्ट है कि शास्त्रकारों का अनुमोदन संसारी मनुष्य के नीति नामक धर्मका है, धन की प्राप्ति की प्रवृत्ति का तनिक भी अनुमोदन नहीं है। अर्थ पुरूषार्थ ‘पुरुषार्थ' स्वरूप तब ही होता है जब उसे नीति नामक धर्म के साथ जोड़ दिया जाये। जिस अर्थ-प्राप्ति का उद्यम नीतिपूर्वक नहीं है, उसे शास्त्रकार 'अर्थ पुरुषार्थ' नहीं कहते। उसे तो केवल अर्थ (धन) प्राप्त करने का परिश्रम ही कहा जा सकता है। इस प्रकार शास्त्रकार धनोपार्जन के द्वारा वैभव प्राप्त करने का उपदेश कदापि नहीं देते, परन्तु जब संसारी मनुष्य 'वैभव' तो प्राप्त करने ही वाला है और उसके लिये धनोपार्जन का पुरुषार्थ करने ही वाला है तब वह नीतिपूर्वक पुरुषार्थ करे यही उनका उपदेश है। 'न्याय-सम्पन्न वैभव' का रहस्यार्थ यदि ठीक तरह से नहीं समझा जाये तो भारी अनर्थ हो सकता है। बिल्कुल यही बात काम - पुरुषार्थ में भी समझ लेने योग्य है। 'काम' का अर्थ यदि मुख्यतः 'काम-वासना' लें तो काम-वासना की तृप्ति के लिये संसारी मनुष्य 'विवाह' किये बिना रहने वाला है तो शास्त्रकार उसे 'विवाह कैसे व्यक्ति के साथ करना चाहिये' आदि बातें समझाते हैं। Gece 20 Ja xox
SR No.032476
Book TitleMangal Mandir Kholo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevratnasagar
PublisherShrutgyan Prasaran Nidhi Trust
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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