SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 462
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ ___३८५ उदारमतना पूज्यश्री ने प्रथम मुझे ही प्रवचन देने के लिए आग्रह किया। आखिर पूज्यश्री की आज्ञा को शिरोमान्य रखते हुए थोड़ी देर के लिए प्रासंगिक प्रवचन दिया । जिसमें चतुर्विध श्री संघ के विशिष्ट आराधकों की हार्दिक अनुमोदना की। तब एक श्रावकने सूचित किया कि, 'इस संघमें भी एक श्राविका अठ्ठम के पारणे अठ्ठम करते हुए पादविहार कर रही हैं ! विसनगर आदि से आये हुए श्रावक श्राविकाओं को भी दर्शन का लाभ मिले इस हेतु से उस तपस्वी श्राविका को खड़े होने की विज्ञप्ति करने में आयी। तब कुछ झिझकते हुए उस श्राविकाने खड़े होकर सभी को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। इतनी उग्र तपश्चर्या करने के बावजूद भी उनकी मुखमुद्रा के उपर छायी हुई अद्भुत प्रसन्नता और अपूर्व तेज देखकर सभी आश्चर्य चकित हो गये ! मानो हररोज ३ बार भोजन करती हों ऐसा लगता था !... प्रवचनादि की पूर्णाहुति के बाद उनकी आराधना के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त करने के हेतु से प्रवचन पंडाल में ही कुछ प्रश्न पूछे । सामायिक में रही हुई तपस्वी सुश्राविका श्री कंचनबहन (उ.व. ५६) ने आत्मश्लाधा के भय से कुछ झिझकते हुए भी गुरुआज्ञा को शिरोमान्य करके विनम्रभाव से जो प्रत्युत्तर दिये उसका सारांश निम्नोक्त प्रकार से है। मूलतः राजस्थानमें पाली जिले के खीमाड़ा गाँव के निवासी यह श्राविका हालमें कुछ वर्षों से मुंबई-परेल में रहती हैं । बचपन से ही दादीमाँ की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से उनको धर्म का रंग लगा था। शादी के बाद भी पति की अनुमति पूर्वक अपनी बिमार माँ की सात साल तक सेवा करने से माँ के भी बहुत आशीर्वाद मिले । बाद में केन्सर की व्याधि से ग्रस्त बिमार सास की १॥ साल तक अपूर्व सेवा करने से उनके भी अत्यंत आशीर्वाद मिले । इन तीन आत्माओं की सेवा के द्वारा मिले हुए हार्दिक शुभाशीर्वादों को ही वे अपनी आध्यात्मिक प्रगति का मुख्य कारण विनम्रभाव से बताती हैं । जिसको भी आत्मविकास साधना है उन्हें अपने बुजुर्गों की सेवा के द्वारा उनकी हार्दिक शुभाशिष अवश्य प्राप्त करनी ही चाहिए,' ऐसा वे खास कहती हैं। बुजुर्गों के दिल को नाराज करके कोई कितनी भी आराधना करे तो भी उनको सच्ची शांति और सफलता नहीं मिलती। बहरत्ना वसंधरा - २-25
SR No.032468
Book TitleBahuratna Vasundhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy