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________________ २२२ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ उद्गार सुनकर हमारा हृदय भी अत्यंत भाव विभोर हो गया था । अपना नाम मुद्रित नहीं करने की उन निःस्पृह प्रभुभक्त आत्मा की खास विज्ञप्ति होने से हम यहाँ उनको 'जिनदास' नाम से उल्लेख करेंगे । मूलतः राधनपुर के निवासी किन्तु वर्तमान में अहमदाबाद में रहते हुए 'श्री जिनदासभाई' (उ.व.४७) को धार्मिक संस्कार तो माता-पिता से संप्राप्त हुए थे, उसमें भी प.पू. आचार्य भगवंत श्री. कल्याण सागरसूरीश्वरजी म.सा. एवं मामा रमणिकभाई की शुभ प्रेरणा से प्रभुभक्ति का अनूठा रंग लग गया है। अपनी पूर्वावस्था का निखालसता से वर्णन करते हुए उन्होंने कहा कि 'वि.सं. २०३१ से २०४५ तक १५ साल तो मैंने भौतिक समृद्धि के हेतु से पद्मावती देवी की बहुत उपासना की थी, लेकिन उससे कुछ लाभ का अनुभव नहीं हुआ था । फिर एक दिन मेरे मामा ( कि जिनकी बेटी ने दीक्षा अंगीकार की है) ने मुझे झकझोरते हुए कहा कि 'जिनदास ! देव-देवी की पूजा के पीछे पागल बनने के बजाय ६४ इन्द्र असंख्य देव-देवी जिनके दास हैं ऐसे देवाधिदेव अरिहत परमात्मा की भक्ति के पीछे पागल बनेगा तो तेरा बेड़ा पार हो जायेगा ।.' ... और समय पर की गयी इस टकोर ने मेरे जीवन में परिवर्तन ला दिया । वि.सं. २०४५ के भाद्रपद महिने में मैं शंखेश्वर तीर्थ में गया। वहाँ पद्मावती देवी से मैंने कहा कि - 'आज से मैं केवल अरिहंत परमात्मा की शरण अंगीकार करता हूँ, इसलिए साधर्मिक के रूप में आप के ललाट पर तिलक करुंगा, इससे अधिक कुछ भी नहीं कर सकूँगा तो मुझे क्षमा करें । उसके बाद देवी उपासना के कारण अरिहंत परमात्मा की की हुई उपेक्षा के लिए सारी रात प्रभुको याद करके बहुत रोया। उस रातको मुझे प्रभुदर्शन हुए।... तब से मैं प्रतिदिन प्रभुभक्ति करने लगा । प्रारंभ में कुछ दिन तक पूजा करने में विशेष भाव नहीं आते थे, फिर भी मैंने संकल्प किया कि, 'अगर मेरी आर्थिक परिस्थिति में थोड़ा सुधार होगा तो मैं एक जिनालय बनवाऊँगा।' देव-गुरु की कृपा से मेरी यह भावना अल्य समय में सफल
SR No.032468
Book TitleBahuratna Vasundhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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