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________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - २ १४१ हस्तमिलन की क्रिया में, रतिसार कुमार को पत्नी की सजावट करते करते, कूर्मापुत्र को घर में बैठे बैठे, अन्यत्व भावनासे पुण्याढ्य राजा को, जिन दर्शन करते करते, माता मस्देवा को तो हाथी पर बैठे बैठे ही कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति, एक-एक आश्चर्यप्रद उदाहरण हैं । वैसे ही प्रभु वीर के तीर्थ में उनके विचरण काल में ही श्रेणिक, सुपार्श्व, पोटील, उदायी, द्रढायु, शंख, शतक, श्राविका सुलसा और रेवती ने श्रावक-श्राविका रूप में ही आगामी काल के तीर्थंकर पद प्राप्ति के मूल जिननाम कर्म का बंध किया है । इन नौ भाग्यशाली के अलावा अति धनाढ्य दस श्रावक आनंद, कामदेव, चुलनीपिता, तेतलीपितादिने तो श्रावक धर्म की साधना से ही प्रथम देवलोक को प्राप्त किया है और इसी एकावतार के साथ आगामी भव में ही मोक्ष महल की मुलाकात का सौभाग्य उपार्जित कर दिया है । उससे भी आगे बढकर आगामी चौवीसी के इसी भरत क्षेत्र के २४ तीर्थंकर के जीव श्रेणिक, कार्तिक श्रेष्ठि, नारद, सुनंदा श्राविका, देवकी, सत्यकी विद्याधर, अंबड तापसादि गृहस्थ के जीव ही तो हैं । जिसमें से २१ देवलोक में हैं और ३ नर्क में गये हैं, फिर भी प्रगति के पथ पर परमात्मा के पद को प्राप्त करने वाले हैं। राजा श्रीषेण और रानी अभिनंदिता के जीव ने श्रावक-श्राविका स्वरूपमें ही आराधना करते करते बारहवे भव में तीर्थंकर शांतिनाथ और गणधर चक्रायुध का रूप संप्राप्त किया, जिनके नाम-काम आज भी प्रख्यात हैं। हर कोई तीर्थंकर अपनी प्रथम देशना में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को - लक्षमें लेकर समयोचित विषय पर प्रवचन प्रदान करते हैं । जैसे ऋषभदेव प्रभु की प्रथम देशना यतिधर्म और श्रावक धर्म की ही व्याख्या थी । पद्मप्रभु ने संसार भावना समझाई, सुपार्श्वनाथ ने अन्यत्व भावना बतलाई, जब कि प्रभु वीर की प्रथम देशना में श्रावक और श्रमण धर्म की व्याख्या प्रधान थी । यही साबित करता है कि, धर्म पुरुषार्थ प्रधानतया श्रमण
SR No.032468
Book TitleBahuratna Vasundhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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