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________________ बहुरत्ना वसुंधरा : भाग - १ विजय प्रभाकरसूरीश्वरजी म.सा. के पास गये और उनके पास दीक्षा लेने की भावना व्यक्त की। निःस्पृही जैनाचार्यश्रीने शिष्य मोहसे निर्लिप्त रहते हुए दिलीपभाई से पूछा 'सचमुच वैराग्य हुआ है कि माँ-बाप के साथ मन-मुटाव होने से भाग आये हो ? जिनके जीवनमें विरागका चिराग प्रज्वलित हो उठा है, ऐसे दिलीपभाई ने प्रत्युत्तरमें सविनय कहा 'साहबजी । मैं वैराग्यकी भावनासे प्रेरित होकर ही आया हूँ, मगर मालेगाँव नजदीकमें होने से मातापिता मुझे लेने के लिए यहाँ आ सकते हैं । जैन धर्म के विशेष स्वरूपसे अनभिज्ञ दिलीपभाई ने संयमकी तालीम लेना प्रारंभ किया । दूसरे ही दिन चतुर्दशी होने से पौषध करवाया गया। साथमें रसना-विजय कारक, महामांगलिक आयंबिल तप जीवनमें प्रथमबार ही किया । आयंबिलके विशेष स्वरूपसे अनभिज्ञ दिलीपभाई ने आयंबिलमें लालमिर्च की याचना की । सहवर्ती श्रावकने समझाया कि आयंबिलमें लाल मिर्च भी वर्ण्य है। दिलीपभाई ने जरा भी तर्क न करते हुए, "तहत्ति" करके पूर्ण प्रसन्नता शुद्ध आयंबिल किया । आत्मा बलवान बनती है और साथमें मनका संकल्प संमिलित होता है तब कल्पनातीत कार्य भी आसानीसे हो जाते हैं । दूसरे ही दिन माता-पिता वहाँ आ पहुँचे । मोहाधीन माँ-बापने पुत्रको घर चलनेके लिए आग्रह किया । करुणावंत आचार्य भगवंतने तीसरे ही दिन दिलीपभाई को माता-पिताको सांत्वनाके लिए घर जानेको कहा। वे गये, लेकिन विरागी आत्माको माता-पिताका स्नेहराग भी रोक न सका। चौथे दिन पुनः वापिस लौटकर वे आचार्य भगवंत के पास आ गये । पूज्यश्रीने उनको अपने समुदायके सिद्धहस्त लेखक प. पू. आ. भ. श्रीमद् विजयपूर्णचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. एवं मुनिराज श्री युगचन्द्रविजयजी के पास भेजा । कुछ दिनके बाद उनके माता-पिताका स्वास्थ्य नादुरस्त होनेसे करीब ढाई महिनों तक माता-पिताके पास आकर उनकी सेवा की। 'संयम कब ही मिले' की भावनावाले दिलीपभाई पुनः पूज्यश्रीके चरण कमलमें उपस्थित हुए । पूज्यश्रीकी आज्ञानुसार वे पुनः प.पू.आ.भ. बहुरत्ना वसुंधरा - १-5
SR No.032468
Book TitleBahuratna Vasundhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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