SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • जिसके दिल में श्री नवकार, उसे करेगा क्या संसार ? " मुझे बहुत ही गुस्सा आता था, जो मुझे पसंद नहीं था। मैं सुधरने के लिए प्रतिदिन प्रतिक्रमण, चैत्यवंदन, सामायिक, तपश्चर्या, व्याख्यान - श्रवण और धार्मिक वांचन करता था, फिर भी गुस्सा कम नहीं हुआ। मैंने शादी के बाद एक बार पिताजी को भी थप्पड़ मारी थी तथा डेढ़ वर्ष की पुत्री को भी मारता था। घर में भी इस प्रकार का गुस्सा देखकर पत्नी से रहा नहीं जाता और वह कहती कि, 'इतना सारा धर्म करने के बाद भी गुस्सा करते हो यह अच्छा नहीं है।" मैं कहता, " अच्छे कार्यों के लिए किया गया गुस्सा खराब नहीं गिना जाता।" तेईस वर्ष की उम्र में मैंने जाना कि शुद्धि रखने से धर्म आराधना शीघ्र फलीभूत होती है। न्यायपूर्वक प्राप्त की गयी सामग्री से जीवन निर्वाह किया जाये तो ही पूरी शुद्धि होती है। धर्म की शुरुआत मार्गानुसारी के पहले गुण न्याय संपन्न वैभव" अर्थात् न्याय से प्राप्त की गयी सामग्री से होती है। इस हेतु आवश्यकताएं कम से कम होनी चाहिये, यह ज्ञान प्राप्त होते ही मैंने इस दिशा में प्रयत्न शुरु किया । मैं ढाई महिने तक बाजरे की रोटी एवं पानी दो टाईम एवं डेढ़ माह तक केवल भीगे हुए मूंग पूरे दिन में एक बार ही खाता था। यह मुझे जम गया। आयंबिल करके जीया जा सकता है, ऐसी श्रद्धा बैठ गयी। मैंने सस्ते एवं टिकाउ कपड़े पहने। इस प्रकार मेरे एक दिन का खर्चा 20 नये पैसे आता था। मुझे लगा कि इसमें 30 नये पैसे का दूध जोड़ दिया जाए तो आराम से जीया जा सकता है। सद्भाग्य से पत्नी एवं पुत्री का भी साथ मिला । 44 मैंने 24 वर्ष की उम्र में आमदनी के लिए बड़ा वाहन चलाने का लाइसेंस प्राप्त किया था। धंधे में प्रतिस्पर्धा होने से अप्रामाणिक भी होना पड़ता था । कभी-कभी बेईमानी का सहारा भी लेना पड़ता था। इसलिए मैंने वह धंधा बन्द कर दिया। जिससे मेरे हिस्से का लाभ पिता के हिस्से में जाने से टेक्स ज्यादा भरना पड़ता था । इस कारण भाइयों ने मुझे समझाया कि तेरे हिस्से के कारण ज्यादा टेक्स बच जाता है, इसलिए तुम्हारा परिवार हमें बोझ रूप नहीं होगा। मैनें फिर से हिस्सा चालु किया, । तब से धंधा संभालने में जो समय बीतता था वह बच गया और मैं सारा 110
SR No.032466
Book TitleJiske Dil Me Navkar Use Karega Kya Sansar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahodaysagarsuri
PublisherKastur Prakashan Trust
Publication Year2000
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy