SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ निसीहज्झयणं उद्देशक ३: सूत्र १३-१८ ओभासति, ओभासंतं सातिज्जति॥ वा असफल न हो-इस प्रकार कह कह कर अवभाषण करता है अथवा अवभाषण करने वाले का अनुमोदन करता है। भिक्खायरिया-पदं भिक्षाचर्या-पदम् भिक्षाचर्या-पद १३. जे भिक्खू गाहावइकुलं पिंडवाय- यो भिक्षुः 'गाहा' पतिकुलं पिण्डपात- १३. जो भिक्षु पिण्डपात (गोचरी) की प्रतिज्ञा पडियाए पविटे पडियाइक्खिए प्रतिज्ञया प्रविष्टे प्रत्याख्याते सति द्विः से गृहपतिकुल में प्रविष्ट होता है। गृहस्थ समाणे दोच्चं तमेवं कुलं तदेव कुलम् अनुप्रविशति, अनुप्रविशन्तं के द्वारा मना कर दिए जाने पर भी दूसरी अणुप्पविसति, अणुप्पविसंतं वा वा स्वदते। बार उसी कुल में अनुप्रवेश करता है अथवा सातिज्जति॥ अनुप्रवेश करने वाले का अनुमोदन करता १४. जे भिक्खू संखडि-पलोयणाए यो भिक्षुः संस्कृतिप्रलोकनया अशनं वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा प्रतिगृह्णाति, वा पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते। सातिज्जति॥ १४. जो भिक्षु रसवती में जाकर भोज्य पदार्थों को देखकर यह दो' 'यह दो' कहकर अशन, पान, खाद्य अथवा स्वाद्य का ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। १५.जे भिक्खू गाहावइकुलं पिंडवाय- यो भिक्षुः 'गाहा'पतिकुलं पिण्डपात- पडियाए अणुपविढे समाणे परं ति- प्रतिज्ञया अनुप्रविष्टे सति परं त्रिग्रहान्तराद घरंतराओ असणं वा पाणं वा खाइमं अशनं वा पानं वा खाद्यं वा स्वाद्यं वा वा साइमं वा अभिहडं आहट्ट अभिहृतम् आहृत्य दीयमानं प्रतिगृह्णाति, दिज्जमाणं पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंत प्रतिगृह्णन्तं वा स्वदते। वा सातिज्जति॥ १५. पिण्डपात की प्रतिज्ञा से गृहपतिकुल में अनुप्रविष्ट जो भिक्षु तीन घरों के आगे से लाकर दिए जाते हुए अभिहत दोषयुक्त अशन, पान, खाद्य अथवा स्वाद्य को ग्रहण करता है अथवा ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। पाय-परिकम्म-पदं पादपरिकर्म-पदम् पादपरिकर्म-पद १६. जे भिक्खू अप्पणो पाए यो भिक्षुः आत्मनः पादौ आमृज्याद् वा १६. जो भिक्षु अपने पैरों का आमार्जन करता है आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, प्रमृज्याद्वा, आमाजन्तं वा प्रमार्जन्तं वा अथवा प्रमार्जन करता है और आमार्जन आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा स्वदते। अथवा प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन सातिज्जति॥ करता है। १७. जे भिक्खू अप्पणो पाए संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, संवाहेंतं वा पलिमहेंतं वा सातिज्जति॥ यो भिक्षुः आत्मनः पादौ संवाहयेद् वा १७. जो भिक्षु अपने पैरों का संबाधन करता है परिमर्दयेद्वा , संवाहयन्तं वा परिमर्दयन्तं अथवा परिमर्दन करता है और संबाधन वा स्वदते। अथवा परिमर्दन करने वाले का अनुमोदन करता है। १८.जे भिक्खू अप्पणो पाए तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा यो भिक्षुः आत्मनः पादौ तैलेन वा घृतेन वा वसया वा नवनीतेन वा अभ्यञ्ज्याद् १८. जो भिक्षु अपने पैरों का तैल, घृत, वसा अथवा मक्खन से अभ्यंगन करता है अथवा
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy