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________________ ३० निसीहज्झयणं उद्देशक २: सूत्र ५२-५६ उवरि सिज्जमाणं पेहाए न ओसारेति, न ओसारेत वा सातिज्जति॥ न अपसारयति, न अपसारयन्तं वा स्वदते। भीगता देखकर हटाता नहीं है अथवा न हटाने वाले का अनुमोदन करता है। २८ ५२. जे भिक्खू पाडिहारियं सेज्जासंथारयं दोच्च अणणुण्णवेत्ता बाहिं णीणेति, णीणेतं वा सातिज्जति॥ यो भिक्षुः प्रातिहारिकं शय्यासंस्तारकं द्विः ५२. जो भिक्षु प्रातिहारिक शय्या और संस्तारक अननुज्ञाप्य बहिः नयति, नयन्तं वा को दुबारा अनुज्ञा लिए बिना बाहर ले जाता स्वदते। है अथवा ले जाने वाले का अनुमोदन करता है।२९ ५३. जे भिक्खू पाडिहारियं सेज्जा- यो भिक्षुः प्रातिहारिकं शय्यासंस्तारकम् ५३. जो भिक्षु प्रातिहारिक शय्या और संस्तारक संथारयं आयाए अपडिहट्ट आदाय अप्रतिहृत्य संप्रव्रजति, संप्रव्रजन्तं को ग्रहण कर प्रत्यर्पित किए बिना (सौंपे संपव्वयइ, संपव्वयंतं वा वा स्वदते। बिना) संप्रव्रजन (ग्रामान्तर-विहरण) करता सातिज्जति॥ है अथवा संप्रव्रजन करने वाले का अनुमोदन करता है। आदाय अविकरणं कृत्वा अन ५४. जे भिक्खू सागारिय-संतियं यो भिक्षुः सागारिकसत्कं शय्यासंस्तारकम् ५४. जो भिक्षु शय्यातर के शय्या-संस्तारक सेज्जा-संथारयं आयाए अविगरणं ___ आदाय अविकरणं कृत्वा अनर्ग्य का ग्रहण कर उनका पुनः विकरण किए कट्ट अणप्पिणित्ता संपव्वयइ, संप्रव्रजति, संप्रव्रजन्तं वा स्वदते। (स्वयंकृत बन्धन आदि को खोले) बिना संपव्वयंतं वा सातिज्जति॥ तथा पुनः उन्हें सौंपे बिना संप्रव्रजन करता है अथवा संप्रव्रजन करने वाले का अनुमोदन करता है। ५५. जे भिक्खू पाडिहारियं वा सागारिय-संतियं वा सेज्जा-संथारयं विप्पणटुंण गवसति, ण गवसंतं वा सातिज्जति॥ यो भिक्षुः प्रातिहारिकं वा सागारिकसत्कं वा शय्यासंस्तारकं विप्रणष्टं न गवेषति, न गवेषन्तं वा स्वदते । ५५. जो भिक्षु प्रातिहारिक अथवा शय्यातर के खोए हुए शय्या और संस्तारक की गवेषणा नहीं करता है अथवा गवेषणा न करने वाले का अनुमोदन करता है। पडिलेहण-पदं प्रतिलेखन-पदम् प्रतिलेखन-पद ५६. जे भिक्खू इत्तरियपि उवहिं ण यो भिक्षुः इत्वरिकमपि उपधिं न ५६. जो भिक्षु इत्वरिक (जघन्य और मध्यम) पडिलेहेति, ण पडिलेहेंतं वा प्रतिलिखति, न प्रतिलिखन्तं वा स्वदते। उपकरण का भी प्रतिलेखन नहीं करता सातिज्जति अथवा प्रतिलेखन न करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवज्जइ मासियं तत्सेवमानः आपद्यते मासिकं । -इनका आसेवन करने वाले को उद्घातिक परिहारहाणं उग्घातियं॥ परिहारस्थानम् उद्घातिकम्। मासिक (लघुमासिक) परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) प्राप्त होता है।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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