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________________ निसीहज्झयणं ४४७ उद्देशक २० : सूत्र १५ पाञ्चमासिक और षाण्मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उससे आगे छलपूर्वक अथवा निश्छल भाव से आलोचना करने पर वे ही छह मास प्राप्त होते हैं। तेण परं पलिउंचिए वा अपलिउंचिए तस्मात् परं परिकुञ्चिते वा अपरिकुञ्चिते वा ते चेव छम्मासा॥ वा ते एव षण्मासाः। परिहारट्ठाण-पडिसेवणा-पदं परिहारस्थान-प्रतिसेवन-पदम् परिहारस्थानप्रतिसेवना-पद १५. जे भिक्खू चाउम्मासियं वा यो भिक्षुः चातुर्मासिकं वा १५. जो भिक्षु चातुर्मासिक, सातिरेक साइरेगचाउम्मासियं वा पंचमासियं सातिरेकचातुर्मासिकं वा पाञ्चमासिकं चातुर्मासिक, पाञ्चमासिक और सातिरेक वा साइरेगपंचमासियं वा एएसिं वा सातिरेकपाञ्चमासिकं वा एतेषां पाञ्चमासिक-इन परिहारस्थानों में से परिहारट्ठाणाणं अण्णयरं परिहारट्ठाणं परिहारस्थानानाम् अन्यतरं परिहारस्थानं किसी एक परिहारस्थान की प्रतिसेवना कर पडिसेवित्ता आलोएज्जा, प्रतिसेव्य आलोचयेत्, अपरिकुञ्चितम् आलोचना करता है, निश्छल भाव से अपलिउंचियं आलोएमाणे ठवणिज्जं आलोचयतः स्थापनीयं स्थापयित्वा आलोचना करने पर स्थापनीय (परिहारतप ठवइत्ता करणिज्जं वेयावडियं। करणीयं वैयावृत्यम्। स्थापिते अपि की समग्र सामाचारी) की स्थापना ठविए विपडिसेवित्ता, से विकसिणे प्रतिसेव्य, तदपि कृत्स्नं तत्रैव (प्ररूपणा) करके उसका वैयावृत्य करना तत्थेव आरुहेयव्वे सिया। आरोपयितव्यं स्यात्। चाहिए। प्रायश्चित्त में स्थापित करने के पुव्विं पडिसेवियं पुव्विं आलोइयं, पूर्वं प्रतिसेवितं पूर्वम् आलोचितम्, पूर्व बाद भी प्रतिसेवना करे तो उसका सम्पूर्ण पुव्विं पडिसेवियं पच्छा आलोइयं। प्रतिसेवितं पश्चाद् आलोचितम्। पश्चात् प्रायश्चित्त उसी (पूर्वप्रदत्त प्रायश्चित्त) में पच्छा पडिसेवियं पुव्विं आलोइयं, प्रतिसेवितं पूर्वम् आलोचितम्, पश्चात् आरोपित कर देना चाहिए। पच्छा पडिसेवियं पच्छा आलोइयं। प्रतिसेवितं पश्चाद् आलोचितम्। १. पूर्वानुपूर्वी से प्रतिसेवित दोष की अपलिउंचिए अपलिउंचियं, अपरिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितम्, पूर्वानुपूर्वी से आलोचना। अपलिउंचिए पलिउंचियं। अपरिकुञ्चिते परिकुञ्चितम् । २. पूर्वानुपूर्वी से प्रतिसेवित दोष की पलिउंचिए अपलिउंचियं, पलिउंचिए परिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितं, परिकुञ्चिते पश्चानुपूर्वी से आलोचना। पलिउंचियं। परिकुञ्चितम्। ३. पश्चानुपूर्वी से प्रतिसेवित दोष की अपलिउंचिए अपलिउंचियं अपरिकुञ्चिते अपरिकुञ्चितम् पूर्वानुपूर्वी से आलोचना। आलोएमाणस्स सव्वमेयं सकयं ___ आलोचयतः सर्वमेतत् स्वकृतं संहत्य ४. पश्चानुपूर्वी से प्रतिसेवित दोष की साहणिय जे एयाए पट्ठवणाए पट्ठविए यत् एतस्यां प्रस्थापनायां प्रस्थापितः । पश्चानुपूर्वी से आलोचना। णिव्विसमाणे पडिसेवेइ, से वि निर्विशमानः प्रतिसेवते, तदपि कृत्स्नं • निश्छल भाव से आलोचना का संकल्प कसिणे तत्थेव आरुहेयव्वे सिया॥ तत्रैव आरोपयितव्यं स्यात्। कर निश्छल भाव से आलोचना। • निश्छल भाव से आलोचना का संकल्प कर छलपूर्वक आलोचना। • छलपूर्वक आलोचना का संकल्प कर निश्छल भाव से आलोचना। • छलपूर्वक आलोचना का संकल्प कर छलपूर्वक आलोचना। निश्छल संकल्प की स्थिति में निश्छल भाव से आलोचना करने वाले के इस सारे स्वकृत को एकत्र करके उस सम्पूर्ण प्रायश्चित्त को भी उसी प्रायश्चित्त में
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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