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________________ निसीहज्झयणं में प्रयोग किया है, ऐसा प्रतीत होता है।" ११. सूत्र २५ कोई भिक्षु पर्यायज्येष्ठ होता है किन्तु बहुश्रुत नहीं होता अथवा कोई शनिक और बहुश्रुत दोनों ही नहीं होता, किन्तु बहुश्रुतमानी होता है, वह गर्व के कारण अवमरानिक आचार्य अथवा उपाध्याय के पास वाचना के लिए नहीं जाता। वाचनाचार्य जब वाचना देते है, तब वह किसी बहाने से इधर-उधर आते जाते अथवा पर्दे, दीवार आदि की ओट से सूत्र अथवा अर्थ का ग्रहण करता है, वह अदत्तवाणी कहलाती है। भाष्यकार के अनुसार अदत्तवाणी के दो प्रकार हैं- १. श्रुतविषयक और २. चारित्रविषयक । गौरव आदि के कारण अवमरानिक अथवा रात्निक के पास सूत्र अथवा अर्थ को ग्रहण नहीं करना, इधर-उधर जाते-आते सुनकर सूत्रार्थ का ग्रहण करना क्रमशः सूत्र एवं अर्थविषयक अदत्त वाणी है। सावद्य भाषा बोलना, गृहस्थ प्रायोग्य भाषा बोलना, उच्च स्वर में बोलना अथवा मायापूर्वक आलोचना करना चारित्रविषयक अदत्तवानी है अथवा तपस्तेन वचस्तेन, रूपस्तेन, आचारस्तेन एवं भावस्तेन-इन पदों का आचरण अदत्तवाणी है।' तपस्वी, धर्मकथी, उच्चजातीय और विशिष्ट आचारसम्पन्न न होते हुए भी स्वयं को उस-उस रूप में प्रस्तुत करने वाला क्रमशः तपस्तेन, वचस्तेन, रूपस्तेन और आचारस्तेन होता है। अदत्त सूत्र अथवा अर्थ को ग्रहण कर 'यह तो मुझे ज्ञात ही था' - ऐसा भाव प्रदर्शित करने वाला १. निभा. भा. ४ चू. पृ. २६४ - गिलाणं संचिक्खावेति ।.......ताव संचिक्खविज्जति । २. ३. ४. वही, गा. ६२५१ वही, गा. ६२५० वही, भा. ४ चू. पृ. २६५ ४३७ भावस्तेन कहलाता है। १२. सूत्र २६-३७ भिक्षु को गृहस्थ, अन्यतीर्थिक, पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील, नैत्यिक एवं संसक्त को सूत्र एवं अर्थ की वाचना नहीं देनी चाहिए। जो मिथ्यात्व से भावित मतिवाले होते हैं, वे गृहस्थ आदि सूत्र एवं अर्थ में अपनी बुद्धि से भिन्न अर्थ की कल्पना कर लेते हैं, तथा अपने ऐकान्तिक दृष्टिकोण के कारण शास्त्र वाक्यों का आक्षेप, प्रवंचना आदि में प्रयोग कर सकते हैं।' गृहस्थ, अन्यतीर्थिक एवं सुविधावादी श्रमणों से सूत्रार्थ की वाचना ग्रहण की जाए तो मिध्यात्व का स्थिरीकरण होता है, तीर्थ की अप्रभावना होती है कि 'इनके मत में कोई ग्रंथ नहीं है, कोई वाचना देने वाला नहीं है, तभी ये दूसरों से वाचना लेते हैं।' अतः गृहस्थ आदि से वाचना लेने तथा इन्हें वाचना देने वाले को प्रायश्चित्तार्ह माना गया है।" ५. ६. उद्देशक १९ : टिप्पण विस्तार हेतु द्रष्टव्य दसवे. ५/२/४६ का टिप्पण भाष्यकार के अनुसार दीक्षा लेने के इच्छुक गृहस्थ एवं पार्श्वस्थता, अवसन्नता आदि से उद्यतविहार में आने के इच्छुक श्रमण आदि को वाचना देना अपवाद है। अतः प्रायश्चित्तार्ह नहीं ।" अपवाद में कदाचित् गण में कोई वाचना देने वाला न हो और इनमें से किसी से आचारप्रकल्प की वाचना लेनी हो तो उसे अपने पूर्व जीवन की आलोचना, प्रतिक्रमण करवाकर द्रव्यलिंग देना चाहिए। वाचना ग्रहण करने की अवधि में उसका यथोचित विनय वैयावृत्य भी करना चाहिए।" ७. ८. ९. निभा. ६२५२, ६२५३ एवं उनकी चूर्णि । वही गा. ६२६० व उसकी चूर्णि वही भा. ४ चू. पृ. २६७ वही, गा. ६२६४ वही, गा. ६२६६-६२७१ (सचूर्णि ) -
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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