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________________ उद्देशक १९ : टिप्पण ज्ञान एवं ३. भावात्मक ( गुणात्मक) योग्यता । इन सूत्रों में वत्त और पत्त शब्द से इन तीनों का ग्रहण हो जाता है। ४३६ १. अवस्था - अवस्था के दो प्रकार हैं-जन्म पर्याय एवं दीक्षा पर्याय। जन्म पर्याय की अपेक्षा से सोलह वर्षों से पूर्व अथवा जब तक कांख आदि में रोम उत्पन्न न हों, तब तक अव्यक्त होता है। उसके बाद व्यक्त होता है। दीक्षा पर्याय से जितने वर्ष के बाद जिस सूत्र को पढ़ने का विधान है, उससे पूर्व उस सूत्र के लिए वह अव्यक्त होता है, जैसे तीन वर्ष से कम दीक्षा पर्याय वाला निसीहझयणं के लिए अव्यक्त है। २. प्राथमिक ज्ञान - पूर्ववर्ती सूत्रों के अध्ययन से पूर्व अग्रिम सूत्रों की दृष्टि से भिक्षु अव्यक्त अथवा अप्राप्त होता है, , जैसे - जिसने आवश्यक सूत्र नहीं पढ़ा, वह दशवेकालिक सूत्र के लिए तथा दशवेकालिक सूत्र पढ़ने से पूर्व उत्तराध्ययन सूत्र के लिए अव्यक्त होता है। अपत्तं शब्द की संस्कृत छाया 'अप्राप्त' भी की जा सकती है। चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या- अप्राप्तकं क्रमानधीतश्रुतमित्यर्थः ' की है। ३. भावात्मक (गुणात्मक) योग्यता - प्राचीन काल में विद्यादान से पूर्व पात्र एवं अपात्र का बहुत विचार होता था । भाष्यकार के अनुसार आहार, उपकरण आदि के प्रति आसक्त होने के कारण तिनतिनाहट करने वाला, चंचलवृत्ति एवं असभ्य, असमीक्षित प्रलाप करने वाला, व्यवस्थित अध्ययन न कर केवल पल्लवग्राही पाण्डित्य को धारण करने वाला, निष्कारण गण बदलने वाला, दुर्बल चरित्रवाला, सुविधावादी, आचार्य का परिभव करने वाला, गुरु के प्रतिकूल वर्तन करने वाला, चुगलखोर, अभिमानी, धर्म के विषय में अपरिपक्व बुद्धि, सामाचारी का यथावत् पालन न करने वाला एवं गुरु का अपलाप करने वाला व्यक्ति आगमों के अध्ययन के लिए अयोग्य होता है । इसी प्रकार पूर्ववर्ती सूत्रों आवश्यकसूत्र आदि का वाचन करने से पूर्व उत्तरवर्ती-छेदसूत्रों का अध्ययन करने के लिए अयोग्य होता है।' निशीथभाष्य एवं चूर्ण में इन सब अर्हताओं का विशद वर्णन मिलता है अपात्र को दिया गया ज्ञान उसी प्रकार गर्हित होता है, जैसे -भास पक्षी के गले में पहनाया हुआ कौस्तुभ मणी । इसलिए १. निभा. गा. ६३३७ २. वही, भा. ४ चू. पृ. २६३ - पव्वज्जाए तिण्हं वरिसाणं पकप्पस्स अव्वत्तो । ३. वही, गा. ६२४० ४. वही, भा. ४ चू.पू. २२५ वही, गा. ६९९८-६२२५ निसीहज्झयणं भाष्यकार कहते हैं कि विद्वान् चाहे अपनी विद्या को साथ लेकर मृत्यु का वरण कर ले, परन्तु किसी भी अवस्था में अयोग्य को वाचना न दे और न योग्य की अवमानना करे। कप्पो (बृहत्कल्पसूत्र ) में अविनीत, विकृति प्रतिबद्ध एवं कलहकारी को वाचना देने का निषेध एवं विनीत, विकृति वर्जन करने वाले तथा उपशान्त कलह को वाचना देने का विधान किया गया है ।" ववहारो में व्यक्त को निशीथसूत्र की वाचना देने का विधान और अव्यक्त को उसकी वाचना देने का निषेध किया गया है । ' १०. सूत्र २४ आगम-वाचना प्राप्त करने की दृष्टि से दो या दो से अधिक शिष्यों के सादृश्य के मुख्यतः चार मानक हैं १. संविग्नता २. सांभोजिकता ३. परिणामकता ४. भूमिप्राप्तता (वय एवं सूत्र से व्यक्त) ' यदि दो शिष्य समान रूप से उद्यतविहारी हों, दोनों स्वयं वाचकभिक्षु अथवा वाचनाचार्य के समान संभोज वाले हों, दोनों परिणामक बुद्धि से सम्पन्न, वय एवं सूत्र से व्यक्त हों और फिर भी एक को वाचना दी जाए, अन्य को न दी जाए तो उनमें पक्षपात होता है, राग-द्वेष के कारण पारस्परिक सामंजस्य एवं शान्ति का भंग होता है। जिसे वाचना नहीं दी जाती, वह परायापन महसूस करता है। फलतः वाचनाचार्य एवं अन्य भिक्षुओं के प्रति आवश्यक कर्त्तव्यों का निर्वाह करते हुए भी वात्सल्य एवं भक्तिप्रत्यधिक निर्जरा का लाभ प्राप्त नहीं कर पाता। " यदि अपेक्षित उपधान के अभाव, रोग अथवा अन्य किसी असामर्थ्य के कारण दो समान गुणवाले भिक्षुओं में से एक को वाचना देनी हो और दूसरे को न देनी हो तो उसे उस स्थिति को समझाते हुए आश्वस्त करना चाहिए, ताकि परायापन (बाह्यभाव ) आदि पूर्वोक्त दोष न आएं। " शब्द विमर्श संचिक्खावेति-शिक्षा देता है। इसे इसी अर्थ में देशी धातु के रूप में स्वीकार किया गया है। चूर्णिकार ने इसे किंचित् भिन्न अर्थ वही, गा. ६२२६, ६२३० कप्पो ४/६, ७ ६. ७. ८. ९. १०. वही, भा. ४ चू. पृ. २६४ १९. वही, गा. ४२४९ वव. १० / २३, २४ निभा. गा. ६२४५
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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