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________________ ४०२ उद्देशक १७: टिप्पण निसीहज्झयणं वर्ण, गंध, रस आदि परिणत हो जाएं तो अपेक्षित कालसीमा के उत्पन्न करना ये सब प्रवृत्तियां संयम की विराधक हैं। भाष्यकार के पश्चात् उसे ग्रहण किया जा सकता है। अनुसार कदाचित् इन प्रवृत्तियों से पूर्वोपशान्त रोग प्रकुपित हो | आठवां दोष है अपरिणत । जो जल आम्ल, सकता है, अभिनव शूल आदि रोग पैदा हो सकता है, वात, श्लेष्म व्युत्क्रान्त, परिणत और विध्वस्त होने के कारण प्रासुक हो, वह आदि के प्रकोप से कदाचित् मुंह असंपुटित रह जाए-इत्यादि प्रकार चिरकाल धौत जल मुनि के लिए एषणीय (ग्राह्य) होता है। से आत्मविराधना संभव है। धर्मकथा आदि के प्रसंग में गायन, शब्द विमर्श अतिशय ज्ञानोत्पत्ति के समय हर्षवशात् की जाने वाली हर्षध्वनि, १. अधुनाधौत-परम्परा के अनुसार जिस धोवन को एक । विपत्ति, अटवी आदि में संकेत के लिए किया जाने वाला मुहूर्त न हुआ हो, वह अधुनाधौत होता है। शास्त्रीय परिभाषा के सिंहनाद-इसके अपवाद हैं। अनुसार जिसका वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श न बदला हो, वह शब्द विमर्श अधुनाधौत है। १. अभिणय-अभिनय करना। २. अनाम्ल-जिसका स्वाद न बदला हो। २. हयहेसिय-घोड़े के समान ध्वनि करना। ३. अव्युत्क्रान्त-जिसकी गन्ध न बदली हो।' ३. हत्थिगुलगुलाइय-हाथी के समान चिंघाड़ना। ४. अपरिणत-जिसका रंग न बदला हो।' ४. उक्कुट्ठसीहणाय-हर्ष अथवा रोष के कारण भूमि का ५. अविध्वस्त-विरोधी शस्त्र के द्वारा जिसके जीव ध्वस्त न । आस्फालन करते हुए उच्चस्वर में सिंहगर्जना करना। हुए हों। १२. सूत्र १३६-१३९ १०.सूत्र १३४ ठाणं में वाद्य के चार प्रकार बतलाए गए हैं। स्वयं की विशिष्ट शारीरसम्पदा, चक्र, चंद्र, अंकुश आदि १. वितत-चर्म से आनद्ध ढोल आदि वाद्यों को वितत कहा विशेष लक्षणसम्पन्नता एवं सत्त्व, तेज आदि गुणसम्पदा का कथन जाता है। गीत और वाद्य के साथ ताल और लय के प्रदर्शनार्थ इन करना, स्वयं को आचार्य की अर्हता से सम्पन्न बताना आत्मश्लाघा चर्मावनद्ध वाद्यों का प्रयोग किया जाता है। प्रस्तुत उद्देशक के समान एवं पदलिप्सा की वृत्ति का परिचायक है। अधिक आत्मश्लाघा आयारचूला में भी भेरी, पटह, मुरव, मृदंग, नंदी, झल्लरी, डमरूक, करने वाला कदाचित् गौरव के कारण क्षिप्तचित्त हो जाता है। अतः मड्डय, सदुय, प्रदेश और गोलुकी को वितत वाद्यों के अन्तर्गत आत्मश्लाघा नहीं करनी चाहिए। प्रस्तुत संदर्भ में भाष्यकार ने परिगणित किया गया हैं। इनके अतिरिक्त ढक्का, विश्वक, दर्पवाद्य, आत्मश्लाघा से होने वाले अनेक दोषों के साथ-साथ प्रयोजनविशेष, कुंडली, स्तुंग, दुंदुभी, मर्छल, अणीकस्थ आदि वितत वाद्यों के प्रभावना आदि अनेक अपवादों का भी कथन किया है। नाम प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। विस्तार हेतु द्रष्टव्य निभा. गा. ५९८३-५९८६ ये वाद्य कोमल भावनाओं का उद्दीपन करने के साथ-साथ ११. सूत्र १३५ वीरोचित उत्साह बढ़ाने में भी कार्यकर होते हैं। अतः इनका उपयोग भिक्षु की प्रत्येक प्रवृत्ति संयत, संयम में उपयोगी एवं संयम में धार्मिक समारोहों तथा युद्धों में भी होता रहा है। वृद्धि करने वाली होनी चाहिए। निरर्थक, स्वयं या दूसरे के मोह की २. तत-इसका अर्थ है तंत्रीयुक्त वाद्य । आयारचूला उदीरणा करने वाली कुतूहलपूर्ण प्रवृत्तियां इन्द्रियजय के लिए घातक ___और निसीहज्झयणं में वीणा, विपंची, बद्धीसग, तुणय, पणव हैं। मात्र जनरंजन के लिए की गई स्वर-साधना, मुंह विस्फारित कर तुंबवीणिया, ढंकुण और झोडय-ये वाद्य 'तत' के अंतर्गत गिनाए विकारपूर्ण हास्य, शंख, शृंग आदि वाद्य बजाना, नृत्य और अभिनय गए हैं।१२ करना, सिंहनाद, चिंघाड़ना आदि विविध प्रकार की ध्वनियों को भरतनाट्य, संगीत-रत्नाकर तथा संगीत-दामोदर आदि ग्रन्थों १. निभा. भा. ४ चू.पृ. १९५-अधुणा धोतं अचिरकालधोतं । ९. वही-उक्किट्ठसंघयणसत्तिसंपन्नो रुट्ठो वा तुट्ठो वा भूमी अप्फालेत्ता २. वही-रसतो अणंबीभूतं । सीहस्सेव णायं करेति। ३. वही १०. (क) निसीह. १७/१३६ ४. वही-न परिणयं अपरिणतं स्वभाववर्णस्थमित्यर्थः । (ख) आचू. ११/१ ५. वही-जे वण्णगंधरसफासेहिं सव्वेहिं ध्वस्तं न विद्धत्थं अविद्धत्थं ११. प्राचीन भारत के वाद्य यंत्र (कल्याण/हिन्दु संस्कृति अंक, पृ. सर्वथा स्वभावस्थमित्यर्थः ७२१,७२२ ६. वही, गा. ५९८८,५९८९ (सचूर्णि) १२. (क) निसीह. १७/१३७ ७. वही, गा. ५९९० (सचूर्णि) (ख) आचू. ११/२ ८. वही, भा. ४ पृ. १९९-हयस्स सरिसं णायं करे।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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