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________________ उद्देशक १३ : टिप्पण २८६ हो जाता है। राजकुल आदि में भिक्षु की शिकायत कर बन्दी बनवाना, देशनिष्कासन करवाना आदि के लिए प्रयत्न कर सकता है । अतः अन्यतीर्थिक एवं गृहस्थ के प्रति भी मर्मभेदी एवं परुष भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। उनके प्रति भी शिष्ट एवं मधुर व्यवहार करना चाहिए ।" ६. सूत्र १७-२७ गृहस्थ एवं अन्यतीर्थिक - चरक, शाक्य, परिव्राजक आदि के सावद्य योग का प्रत्याख्यान नहीं होता। अतः वे तप्त अयोगोलक के समान समन्ततः जीवोपघाती होते हैं। भिक्षु उनके शरीर की रक्षा अथवा अन्य किसी प्रयोजन से कौतुककर्म, भूतिकर्म आदि करता है, देवता अथवा विद्या का आह्वान कर उन्हें प्रश्नों का उत्तर देता है, उसे लक्षण, व्यंजन, स्वप्न आदि के फल बताता है, उनके प्रयोजन से विद्या, मंत्र, योग आदि का प्रयोग करता है तो उसे भी सावद्य योग की अनुमोदना का दोष लगता है। यदि कोई मिथ्या कथन हो जाए अथवा गृहस्थ आदि उसे विपरीत समझ ले, कदाचित् उनका कोई अशुभ हो जाए तो कलह, लोकापवाद, वध, बन्धन आदि दोष भी संभव है। नियुक्तिकार के अनुसार कौतुककर्म, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, स्वप्न, लक्षण, मूल, मंत्र, विद्या आदि के आधार पर आजीविका निर्वाह करने वाला भिक्षु कुशील होता है।' शब्द विमर्श कौतुककर्म-दृष्टि दोष आदि से रक्षा के लिए किया जाने वाला मषी तिलक, रक्षाबन्धन आदि प्रयोग सौभाग्य आदि के लिए किया जाने वाला स्नपन, विस्मापन, धूम, होम आदि कर्म । मृतवत्सा स्त्री आदि को श्मशान, चत्वर आदि में स्नान करवाना। भूतिकर्म शरीर आदि की रक्षा के लिए किया जाने वाला भस्मलेपन, सूत्रबंधन आदि।' विद्या से अभिमंत्रित राख लगाना आदि । प्रश्न- दर्पण आदि में देवता का आह्वान, मंत्रविद्या विशेष।' चूर्णिकार के अनुसार प्रश्नव्याकरण में पहले इस प्रकार के तीन सौ चौबीस प्रश्न थे।" १. निभा. गा. ४२८६ २. वही, गा. ४३४५ ३. पाइय. ४. निभा.भा. ३, पू. पू. ३८३- णिमादिवाण मसाणचत्वरादिसु हवणं कज्जति । ५. वही रक्खाणिमित्तं भूती विज्जाभिमंतीए भूतीए...... । ६. पाइय. ७. निभा. भा. ३ चू. पृ. ३८३ निसीहज्ड्रायणं प्रश्नाप्रश्न - मंत्र - विद्या के बल से स्वप्न आदि में देवता के आह्वान द्वारा जाना हुआ शुभाशुभ फल का कथन ।' विद्याभिमंत्रित घंटिका को कान के पास बजाने पर कर्णपिशाचिका देवी का आसन चलित हो जाता है और वह प्रश्न का उत्तर देती है।' अतीतनिमित्त अतीत में तुम्हें यह लाभ हुआ, तुम्हारे मातापिता इतने काल तक जीवित थे- इत्यादि अतीतकालीन निमित्तों का कथन । ८. वही, गा. ४२९० ९. दे. श. को. (द्रष्टव्य-इंखिणी शब्द ) १०. निभा. भा. ३, चू. पृ. ३८३ लक्षण - पूर्वजन्मों के शुभ नाम एवं शुभ शरीरांगोपांग नाम कर्म के उदय से शरीर के अवयवों पर होने वाले शुभ चिह्न तथा स्वर वर्ण आदि।" ये सहजात होते हैं।" व्यंजन - तिल, मष आदि चिह्न, जो शरीर पर बाद में पैदा होते हैं, सहजात नहीं होते। " स्वप्न- अर्ध जागृत अवस्था में दृष्ट, अनुभूत आदि विषयों का साक्षात् दर्शन। यह नोइन्द्रिय (मन) मतिज्ञान का विषय है। १४ भाष्य एवं चूर्णि में स्वप्न के पांच प्रकारों याथातथ्य, प्रतान, चिन्ता आदि का विशद विवरण मिलता है।" विद्या - जिसे उपचार से सिद्ध किया जाए अर्थात् जिसे साधने के लिए कोई विशेष साधना, जप, होम आदि अनुष्ठान अपेक्षित हों, वह विद्या होती है।" जिसकी अधिष्ठात्री देवी हो, वह विद्या मंत्र जिसे पढ़ने मात्र से सिद्ध किया जा सके, वह मंत्र कहलाता है । " जिसका अधिष्ठाता देव हो, वह मंत्र है। " योग किसी को वश में करने के लिए या पागल आदि बनाने के लिए प्रयुक्त होने वाला चूर्णविशेष । वशीकरण, विद्वेषण, पादप, अंतर्धान आदि के चूर्ण आदि योग कहलाते हैं। वागरे - प्रयोग करता है, बताता है। ७. सूत्र २८ कदाचित् कोई गृहस्थ आदि मार्गच्युत हो जाए, अटवी आदि दिग्भ्रान्त हो जाए अथवा विपर्यास के कारण जिस दिशा से आया है, पुनः उसी दिशा में चलने लगे, तब भी भिक्षु को उसे मार्ग अथवा ११. वह अम्यकवसुधणामसर अंगोवंगकम्मोदयाओ भवति । १२. वही, गा. ४२९५ - सहजं च लक्खणं । १३. वही - वंजणं तु मसगादी।पच्छा समुप्पण्णं । १४. वही, गा. ४२९८ तथा उसकी चूर्णि । १५. वही, गा. ४३००-४३०३ १६. वही, भा. ३, चू. पृ. ३८५ - सोवचारसाधणा विज्जा । १७. वही - इत्थि अभिहाणा विज्जा । १८. वही - पढियसिद्धो मंतो । १९. वही - पुरिसाभिहाणो मंतो । २०. वही, गा. ४३०४ - जोगो पुण पायलेवादी ।...... (चू.) वसीकरणविद्देसणुच्छादणापादलेवंतद्धाणादिया जोगा बहुविधीता ।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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