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________________ टिप्पण १. सूत्र १-७ प्रस्तुत आलापक में अव्यवहित पृथिवी, सचित्त जल से स्निग्ध पृथिवी, सचित्त आरण्यरजों से मिश्र पृथिवी, मृत्तिकायुक्त पृथिवी, सचित्त पृथिवी, शिला एवं ढेले पर खड़े होने, बैठने, सोने तथा स्वाध्याय करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। प्रस्तुत आगम के पांचवें उद्देशक में सचित्त वृक्षमूल में स्थान, शय्या और निषीदिका करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है। वहां 'निसीहिया' पद से निषद्या ( बैठने की क्रिया) का ग्रहण किया गया है। यहां निषद्या और नैषेधिकी दो पदों से बैठने और स्वाध्याय करने इन दो क्रियाओं का ग्रहण किया गया है। जैन तत्त्वदर्शन के अनुसार जब तक पृथिवी किसी शस्त्र से अनुपहत है, शस्त्रपरिणति से रहित है, तब तक वह सचित्त है। ' एक बलवान तरुण एक जराजीर्ण वृद्ध पर आक्रमण करे, तब उसे जितनी वेदना होती है, सचित्त पृथिवीकाय पर बैठने, सोने आदि की क्रिया से उन जीवों को उससे भी अधिक वेदना होती है। जिस प्रकार वृक्ष की स्निग्धता अल्प होने के कारण सामान्य जन के अनुभव में नहीं आती, उसी प्रकार स्थावर जीवों की वेदना अव्यक्त होने के कारण अनतिशयज्ञानी के लिए अज्ञेय है।' सचित्त पृथिवी आदि पर उपर्युक्त अथवा इसी प्रकार की अन्य क्रियाएं करने से उन जीवों की विराधना होती है तथा भिक्षु के अहिंसा महाव्रत की विराधना होती है। अतः सचित पृथिवी, शिला, ढेला आदि पर इन क्रियाओं को करना प्रायश्चित्तयोग्य माना गया है। शब्दविमर्श हेतु द्रष्टव्य निसीह. ७/६८-७४ । २. सूत्र ८ सूखी हुई लकड़ी अथवा लकड़ी से बने फलक आदि पर भिक्षु स्थान, निषीदन आदि क्रियाएं कर सकता है, किन्तु उसमें घुण लगे हों अथवा वह अन्य किसी त्रस प्राणी या उसके अंडों से युक्त हो तो उस पर बैठने, सोने आदि से संयमविराधना एवं आत्मविराधना १. दसवे. ४/४ २. निभा. गा. ४२६३ ३. वही, गा. ४२६४ ४. वही, भा. ३, चू. पृ. ३७६- सपाणे वा दारुए पुढवीए वा । संभव है। इसी प्रकार बीज, हरियाली, कीटिकानगर, काई, ओस, कीचड़ आदि से युक्त पृथ्वी अथवा काष्ठ-फलक आदि पर भी भिक्षु को स्थान, निषीदन, स्वाध्याय आदि क्रियाएं नहीं करनी चाहिए, ताकि जीव - विराधना न हो। यद्यपि सूत्रपाठ में विशेष्य के रूप में एक 'दारु' पद ही प्रयुक्त है तथा इसका नाम भी दारुपद है तथापि चूर्णिकार ने सप्राण और सबीज के विशेष्य के रूप में 'दारु पुढवीए वा' दो पदों का प्रयोग किया है। पृथिवी पर भी प्राण, बीज, कीटिकानगर आदि हो सकते हैं। अतः उस पर भी बैठना, खड़ा होना आदि अहिंसा महाव्रत अतिचार होने से प्रायश्चित्तार्ह है । ३. सूत्र ९-१९ प्रस्तुत आलापक में ऐसे ऊंचे स्थानों पर खड़े होने, बैठने, लेटने अथवा स्वाध्याय करने का प्रायश्चित्त प्रज्ञप्त है, जो रस्सी, काष्ठ आदि से भलीभांति बद्ध नहीं हो, सम्यक् रूप से स्थापित एवं स्थिर न हो। दुर्बद्ध, दुर्निक्षिप्त एवं चलाचल खम्भे, देहली, ऊखल आदि पर बैठना, सोना आदि क्रियाएं करने पर गिरने का भय रहता है। अधिक ऊपर से गिरने पर हाथ, पैर आदि टूटने से आत्मविराधना, पात्र टूटने से भाजनविराधना एवं नीचे छोटे जीवों के मर जाने से संयमविराधना संभव है। कदाचित् खंभा, देहली आदि टूट जाए और गृहस्थ उनकी मरम्मत करवाए, नया बनाए तो अधिकरण, लोकापवाद आदि दोष भी संभव हैं।' आबारचूला में भी आगाढ़ अनागाढ़ कारण के बिना मंच, माल (मंजिल), प्रासाद, हम्यंतल और उसी प्रकार के अन्तरिक्षजात स्थानों पर स्थान, शय्या और निषीधिका करने का निषेध प्रज्ञप्त है। शब्द विमर्श थूणा - वेली (खंभा, खूंटी) । " गिलय - देहली।' ५. वही, गा. ४२७० ६. ७. ८. पवडते कायवहो आउवयातो व भाणभेदादी । तस्सेव पुणक्करणे, अहिगरणं अण्णकरणं वा ।। आचू. २/१८ निभा. गा. ४२६८ - थूणाओ होति वियली । वही गिलुओ उंबरो
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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