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________________ उद्देशक ७: सूत्र ३७-४० १५२ निसीहज्झयणं ३७. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया वडियाए अण्णमण्णस्स कायंसि गंडं अन्योन्यस्य काये गण्डं वा पिटकं वा वा पिडयं वा अरइयं वा असियं वा अरतिकां वा अर्थो वा भगन्दरं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं अन्यतरेण तीक्ष्णेन शस्त्रजातेन आच्छिद्य सत्थजाएणं अच्छिंदित्ता वा वा विच्छिद्य वा पूर्व वा शोणितं वा विच्छिंदित्ता वा पूर्व वा सोणियं वा निस्सृत्य वा विशोध्य वा शीतोदकविकृतेन णीहरित्ता वा विसोहेत्ता वा वा उष्णोदकविकृतेन वा उत्क्षाल्य वा सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग- प्रधाव्य वा अन्यतरेण आलेपनजातेन वियडेण वा उच्छोलेत्ता वा पधोएत्ता आलिप्य वा विलिप्य वा तैलेन वा घृतेन वा अण्णयरेणं आलेवणजाएणं वा वसया वा नवनीतेन वा अभ्यज्य वा आलिंपेत्ता वा विलिंपेत्ता वा तेल्लेण म्रक्षित्वा वा अन्यतरेण धूपनजातेन धूपायेद् वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा प्रधूपायेद्वा, धूपायन्तं वा प्रधूपायन्तं वा अब्भंगेत्ता वा मक्खेत्ता वा अण्णयरेणं धूवणजाएणं धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा, धूवेंतं वा पधूवेंतं वा सातिज्जति॥ ३७. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म-सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे के शरीर में हुए गंडमाल, फोड़ा, फुसी, अर्श अथवा भगन्दर का किसी तीक्ष्ण शस्त्रजात से आच्छेदन अथवा विच्छेदन कर पीव अथवा रक्त को निकाल कर अथवा साफ कर, प्रासुक शीतल जल अथवा प्रासुक उष्ण जल से उत्क्षालन अथवा प्रधावन कर, किसी आलेपनजात से आलेपन अथवा विलेपन कर उसका तैल, घृत, वसा अथवा मक्खन से अभ्यंगन अथवा म्रक्षण कर उसे किसी धूपजात से धूपित करता है अथवा प्रधूपित करता है और धूपित अथवा प्रधूपित करने वाले का अनुमोदन करता है। किमि-पदं कृमि-पदम् ३८. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया वडियाए अण्णमण्णस्स पालुकिमियं अन्योन्यस्य पायुकृमिकं वा कुक्षिकृमिकं वा कुच्छिकिमियं वा अंगुलीए वा अंगुल्या निवेश्य-निवेश्य निस्सरति, णिवेसिय-णिवेसिय णीहरेति, निस्सरन्तं वा स्वदते। णीहरेंतं वा सातिज्जति ॥ कृमि-पद ३८. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म-सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे भिक्षु के अपान के कृमि अथवा कुक्षि के कृमि को अंगुली डाल-डाल कर निकालता है अथवा निकालने वाले का अनुमोदन करता णह-सिहा-पदं नखशिखा-पदम् ३९. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया वडियाए अण्णमण्णस्स दीहाओ अन्योन्यस्य दीर्घाः नखशिखाः कल्पेत णह-सिहाओ कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा वा, कप्तं वा संठवेंतं वा संस्थापयन्तं वा स्वदते । सातिज्जति। नखशिखा-पद ३९. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म-सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे भिक्षु की दीर्घ नखशिखा को काटता है अथवा व्यवस्थित करता है और काटने अथवा व्यवस्थित करने वाले का अनुमोदन करता है। दीह-रोम-पदं दीर्घरोम-पदम् दीर्घरोम-पद ४०. जे भिक्खू माउम्गामस्स मेहुण- यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया ४०. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर वडियाए अण्णमण्णस्स दीहाइं जंघ- अन्योन्यस्य दीर्घाणि जंघारोमाणि कल्पेत अब्रह्म-सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे रोमाइं कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, वा संस्थापयेद् वा, कल्पमानं वा भिक्षु की जंघाप्रदेश की दीर्घ रोमराजि को कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति। संस्थापयन्तं वा स्वदते। काटता है अथवा व्यवस्थित करता है और
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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