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________________ उद्देशक ७ सूत्र १९-२३ सीओदग वियडेण वा उसिणोदग वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ।। - - १९. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवाडिया अण्णमण्णस्स पाए फुमेज्ज वा एज्ज वा, फुतं वा रएंतं वा सातिज्जति ।। - काय परिकम्म पर्द - २०. जे भिक्खु माउणामस्स मेहुण वडियाए अण्णमण्णस्स कार्य आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ॥ २१. जे भिक्खु माम्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कार्य संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संवातं वा पलिमद्देतं वा सातिज्जति ॥ २२. जे भिक्खु माउम्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कार्य तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अब्भंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा अब्भंगतं वा मक्खतं वा सातिज्जति ।। " २३. जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कार्य लोद्वेण वा कक्केण वा चुण्णेण वा वणेण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वट्टेज्ज वा, उल्लोलेंतं वा उव्यतं वा सातिज्जति ॥ १४८ उष्णोदकविकृतेन वा उत्क्षालयेद् वा प्रधावेद् वा, उत्क्षालयन्तं वा प्रधावन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अन्योन्यस्य पादौ 'फुमेज्ज' (फूत्कुर्याद्) वारजेद् वा, 'फुमेंतं' (फूत्कुर्वन्तं) वा रजन्तं वा स्वदते । कायपरिकर्म-पदम् यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अन्योन्यस्य कायम् आमृज्याद् वा प्रमृज्याद् वा, आमार्जन्तं वा प्रमार्जन्तं वा स्वदते। यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अन्योन्यस्य कार्य संवाहयेद वा परिमर्दयेद् वा, संवाहयन्तं वा परिमर्दयन्तं वा स्वदते । यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अन्योन्यस्य कायं तैलेन वा घृतेन वा वसया वा नवनीतेन वा अभ्यञ्ज्याद् वा प्रक्षेद् वा अभ्यञ्जन्तं वा प्रक्षन्तं वा स्वदते । " यो भिक्षुः मातृग्रामस्य मैथुनप्रतिज्ञया अन्योन्यस्य कार्य लोध्रेण वा कल्केन वा चूर्णेन वा वर्णेन वा उल्लोलयेद् वा उद्वर्तेत वा, उल्लोलयन्तं वा उद्वर्तमानं वा स्वदते । निसीहज्झयणं भिक्षु के पैरों का प्रासुक शीतल जल से अथवा प्रासुक उष्ण जल से उत्क्षालन करता है अथवा प्रधावन करता है और उत्क्षालन अथवा प्रधावन करने वाले का अनुमोदन करता है । १९. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे भिक्षु के पैरों पर फूंक देता है अथवा रंग लगाता है और फूंक देने अथवा रंग लगाने वाले का अनुमोदन करता है। कायपरिकर्म पद २०. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म सेवन के संकल्प से एक दूसरे भिक्षु के शरीर का आमार्जन करता है अथवा प्रमार्जन करता है और आमार्जन अथवा प्रमार्जन करने वाले का अनुमोदन करता है। २१. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे भिक्षु के शरीर का संबाधन करता है अथवा परिमर्दन करता है और संबाधन अथवा परिमर्दन करने वाले का अनुमोदन करता २२. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे भिक्षु के शरीर का तैल, घृत, वसा अथवा मक्खन से अभ्यंगन करता है अथवा प्रक्षण करता है और अभ्यंगन अथवा प्रक्षण करने वाले का अनुमोदन करता है। २३. जो भिक्षु स्त्री को हृदय में स्थापित कर अब्रह्म सेवन के संकल्प से परस्पर एक दूसरे भिक्षु के शरीर पर लोध, कल्क, चूर्ण अथवा वर्ण का लेप करता है अथवा उद्वर्तन करता है और लेप अथवा उद्वर्तन करने वाले का अनुमोदन करता है।
SR No.032459
Book TitleNisihajjhayanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragya Acharya, Mahashraman Acharya, Srutayashashreeji Sadhvi
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2014
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size16 MB
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