SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान ज्ञान बाधित है, तब अप्रत्यक्ष या असाक्षात् ज्ञानके सत्य होनेका दावा किसी किसी प्रकार नहीं किया जा सकता है। तत्त्वोपप्लववादी चार्वाकका उक्त कथन आधुनिक तर्क शास्त्रके 'पर्याप्त कारण नियम' (law of Surfficicnt rcason) पर आधृत है। कोई भी सत्य या तथ्य पर्याप्त कारणोंके बिना सिद्ध नहीं होता है। प्रमाण-प्रमेयके अस्तित्वकी सिद्धि में पर्याप्त कारणोंका अभाव दिखलायी पड़ता है, अतः सभी तत्व उपप्लुत हैं । अनेक मतावलम्बी' जीवको स्वीकार करते हैं, पर उसके स्वरूपके सम्बन्धमें पर्याप्त मतभेद है। विपरीत धारणाओंके मध्य किसके विचारको यथार्थ समझा जाय । सांख्य जीवको त्रिकाल भूत, भविष्यत् और वर्तमानमें व्याप्त एवं अविनाशी मानते हैं। मीमांसक जीवको कर्तव्य शक्तिहीन, नैयायिक अज्ञानमय और बौद्ध जीवको विज्ञानमय मानते हैं । विभिन्न मतावलम्बियोंकी परस्परमें व्याघातक मान्यताएं ही जीवका अभाव सिद्ध करनेमें सहायक हैं। आधुनिक तर्कके मध्यवर्ती निषेध-नियमके (law of excluded middle) अनुसार दो व्याधातक पदोंके बीच तीसरे पदके लिए कोई स्थान नहीं हो सकता । दो विरोधी तर्क एक साथ न तो सत्य हो सकते हैं और न असत्य ही । अतएव जीवके स्वरूपके सम्बन्धमें किये गये विरोधी विचार जीवका अभाव बतलाते हैं । ___ यहां तत्त्वोपप्लववादी तत्त्वदादियोंसे प्रश्न करता है कि जो तत्त्व-प्रमाण तत्त्व और प्रमेय तत्त्व आप मानते हैं, वे प्रमाण सिद्ध है अथवा बिना प्रमाणके । यदि प्रमाण सिद्ध हैं, तो वह प्रमाण भी किसी अन्य प्रमाणसे सिद्ध होगा। इस प्रकार प्रश्नान्तर होनेसे अनवस्था दोष आयगा, जिससे प्रमाण तत्त्वकी सिद्धि सम्भव नहीं । यदि यह कहा जाय कि प्रथम प्रमाण द्वितीय प्रमाणका व्यवस्थापक है और द्वितीय प्रथमका तो यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उस मान्यतामें अन्योन्याश्रय दोष आता है । यदि प्रमाण की प्रमाणता स्वयं ही व्यवस्थित मानी जाय तो समस्त प्रमाणवादियोंके यहां कोई विवाद उठनेपर उसकी व्यवस्था प्रमाण द्वारा स्वीकार करने में पूर्ववत् अन्योन्याश्रय दोष आयगा। यदि प्रमाणके बिना ही प्रमाणतत्त्वकी सिद्धि मानी जाय तो तत्त्वोपप्लवकी सिद्धि भी बिना प्रमाणके मान लेने में क्या हानि है । तत्त्ववादीका यह तर्क भी समीचीन नहीं कि विचारके बाद प्रमाणादितत्त्वकी व्यवस्था होती है और विचार जिस किसी तरह किये जानेपर उपालम्भके योग्य नहीं है । अन्यथा किसी वचनका प्रयोग ही नहीं हो सकेगा। इस प्रकारको विचार प्रक्रियाका संयोजन तत्वोपप्लवमें भी सम्भव है। १. जोवमन्ये प्रपद्यापि तद्धर्म प्रतिवादिनः । विवदन्ते प्रबन्धेन विविधागमवासिताः ।।-चन्द्रप्रभ चरितम् २/४८ २. परस्य सिद्धं प्रमाणं तदभावविषयमिति चेत् तत् परस्य प्रमाणतः सिद्धं प्रमाणान्तरेण वा ? यदि प्रमाणतः सिद्ध नानात्मसिद्धं नाम, प्रमाणसिद्धस्य नानात्मनां वादि-प्रतिवादिनां सिद्धत्वाविशेषात् ।.... अष्टसहस्री, पृ० ३७
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy