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________________ चन्द्रप्रभचरित काव्यमें तत्त्वोपप्लववाद-समीक्षा वीरनन्दि द्वारा रचित चन्द्रप्रभ एक काव्य ग्रन्थ है, पर प्रसंग वश इस काव्यमें कई दार्शनिक मान्यताओंकी समीक्षा भी की गयो है। यहाँ हम अन्य दार्शनिक सिद्धान्तोंकी आलोचनान कर, केवल तत्त्वोपप्लववादको समीक्षा पर ही विचार-विनिमय करेंगे। चार्वाक दर्शनके विभिन्न रूपोंमें एक तत्त्वोपप्लववाद भी है। यह भूत चैतन्यवादी चार्वाकसे भी नास्तिकतामें आगे है । भूत चैतन्यवादी कमसे कम भूतचतुष्टयका अस्तित्व स्वीकार करता है तथा उसकी सिद्धिके लिए एक प्रत्यक्ष प्रमाण भी मानता है, किन्तु तत्त्वोपप्लववादी तो किसी भी तत्त्वका अस्तित्व स्वीकार नहीं करता। उसके मतमें समस्त प्रमेयतत्त्व और प्रत्यक्षादि प्रमाणतत्त्व उपप्लुत-बाधित हैं। अतः जीवादि तत्त्व मानना एवं आत्मशुद्धिके लिए पुरुषार्थ करना व्यर्थ है । जो वस्तु प्रमाण सिद्ध है ही नहीं, उसकी साधना करना बालुका कणोंमेंसे तेल निकालनेके समान निष्फल है । तत्त्वोपप्लववादी' पूर्वपक्षकी स्थापना करता हुआ कहता है कि प्रमाणसे सिद्ध होनेवाला जीव नामका कोई पदार्थ नहीं है । अतएव जीवके आश्रयसे सिद्ध होनेवाला अजीव पदार्थ भी कैसे मान्य हो सकता है। ये दोनों परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हैं। स्थूल और सूक्ष्म धर्मोके समान एक दूसरेके आश्रित हैं । अतएव आश्रयके अभावमें आश्रयी और आश्रयीके न रहनेसे आश्रयकी स्थिति सम्भव नहीं है । जब जीव नहीं है, तो जीवके कर्मबन्ध और मोक्षादि किस प्रकार घटित हो सकते हैं । यतः धर्मकी स्थिति धर्मीमें ही होती है । ___तार्किक दृष्टिसे विचार करनेपर जीवादि पदार्थोंका न तो आकारिक (Formal) सत्य उपलब्ध होता है और न वास्तविक ही (Material) दृश्यमान जगत्के पदार्थ न तो परमतम सत्य हैं, न व्यावहारिक सत्य और न लौकिक ही । विचार करते ही पदार्थोंका स्वरूप उपप्लुतबाधित होने लगता है और जब तत्त्व स्वरूप ही उपप्लुत है तो फिर अनुमानादि प्रमाणोंका स्वरूप किस प्रकार स्थिर रह सकेगा? वह तो विचार करते ही जीर्ण वस्त्रके समान खण्डित हो जाता है। जिस अनुमान या तर्क द्वारा प्रमेयोंकी सिद्धि की जाती है, वह अनुमान संशयास्पद अथवा मिथ्या होता है, अतएव मिथ्यासे सत्यको सिद्धि कभी भी सम्भव नहीं है। जब प्रत्यक्ष १. केचिदित्थं यतः प्राहुर्नास्तिकाममाश्रिताः । न जीवः कश्चिदप्यस्ति पदार्थो मानगोचरः । अजीवश्च कथं जीवापेक्ष्यस्तस्यात्यये भवेत् । अन्योन्यापेक्षया तौ हि स्थूलसूक्ष्माविव स्थितौ ।। कथञ्च जीवधर्माः स्युर्बन्धमोक्षादयस्ततः । सति धर्मिणि धर्मी हि भवन्ति न तदत्यये ॥ तस्मादुपप्लुतं सर्व तत्त्वं तिष्ठतु संवृत्तम् । प्रसार्यमाणं शतधा शीर्यते जीर्णवस्त्रवत् ॥-चन्द्रप्रभचरितम् २/४४-४७
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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