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________________ जैन न्याय एवं तत्त्वमीमांसा की है, उससे भी उपर्युक्त कथनकी सिद्धि होती है। विज्ञान ध्वनिकी उत्पत्तिमें 'कम्पन' को आवश्यक मानता है । यह कम्पन स्पर्श गुणके परिवर्तनसे ही सम्भव है। जैन दार्शनिकोंने शब्दको गतिमान, स्थितिमान और मूर्तिक माना है। परीक्षणसे भी उक्त तीनों गुण शब्दमें सिद्ध हैं । अत शब्द पुद्गलका पर्याय है और स्पर्श गुणके विकारसे उत्पन्न होता है तथा इसमें पुद्गलके चारों गुणोंमेंसे स्पर्श गुण ही प्रधान रूपसे व्यक्तावस्थामें पाया जाता है । नित्यानित्यत्व मीमांसकका कहना है कि शब्दको अनित्य माननेसे अर्थको प्रतीति सम्भव नहीं; किन्तु शब्दसे अर्थकी प्रतीति होती है, अतः शब्द नित्य है । शब्द नित्य न हो तो स्वार्थका वाचक नहीं हो सकता है। शब्दमें वाचकत्व और अर्थमें वाच्यत्व-शक्ति है, अतः शब्द और अर्थमें वाच्यवाचक सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमादि प्रमाणोंसे सिद्ध है। उदाहरणके लिए यों कह सकते हैं कि हमने किसी व्यक्तिसे पानी लानेको कहा। शब्द अनित्य होता तो पानी शब्द कहनेके साथ ही नष्ट हो जाता और श्रोताको अर्थकी प्रतीति ही नहीं होती तथा हम प्यासे ही बने रहते और सुननेवाला हमें कभी भी पानी लाकर नहीं देता। पर यह सब होता नहीं है, श्रोता हमारे कहनेके साथ ही अर्थ बोध कर लेता है और जिस अर्थमें जिस शब्दका प्रयोग किया जाता है श्रोता उसकी क्रियाको भी सम्पन्न कर देता है। अतएव शब्द नित्य है, अन्यथा अर्थबोध नहीं हो सकता था। अनित्य शब्द से अर्थकी प्रतीति, प्रवृत्ति और प्राप्ति असम्भव है। _ 'यह घट है' इस शब्दकी सदृशता इसी प्रकारके विभिन्न देशवर्ती शब्दोंमें पायी जाती है, अतः यह सदृशता अर्थका वाचक हो जायगी, नित्यता नहीं-यह आशंका भी निरर्थक है, अतः शब्द सदृशतासे अर्थका वाचक नहीं हो सकता; क्योंकि शब्दमें वाचकत्व एकत्वसे सम्भव है, सदृशतासे नहीं । न सादृश्य प्रत्यभिज्ञानसे अर्थका निश्चय किया जा सकता है; क्योंकि ऐसा माननेसे शब्द-ज्ञानमें भ्रान्ति-दोष आयगा । एक शब्दमें संकेत होनेपर दूसरे शब्दसे अर्थका निश्चय निन्ति नहीं हो सकता; अन्यथा गृहीत संकेत गोशब्दमें अश्व शब्दसे गाय अर्थका निश्चय भी अभ्रान्त हो जायगा । यदि शब्दके अवयवोंके साम्यसे शब्दमें सदृशता स्वीकार की जाय तो यह भी असंगत होगा; क्योंकि वर्ण निरवयव होते हैं । गत्वसे विशिष्ट गादि शब्दोंमें भी वाचकत्व नहीं बन सकता है; यतः गादि सामान्यका अभाव है और सामान्यके अभावके कारण शब्दों में नानात्व भी सम्भव नहीं। अतएव नित्य शब्द द्वारा ही अर्थबोध हो सकता है। पतंजलिने 'ऋलक्' सूत्रकी व्याख्यामें जातिवाचक, गुणवाचक, क्रियावाचक और यदृच्छा शब्दोंका विवेचन करते हुए जाति शब्दोंको नित्य; क्रियावाचक शब्दोंको अत्यन्त सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष; गुणवाचक शब्दोंको अव्यवहार्य और स्वानुभूति-संवेद्य एवं यदृच्छा शब्दोंको लोकव्यवहारका हेतु माना है । यदृच्छा शब्द भौतिक हैं, ये नित्य नहीं; प्रतिक्षण परिवर्तनशील हैं। कैयटने इसी सूत्रकी व्याख्यामें यदृच्छा शब्दके अतिरिक्त अन्य किसीका अस्तित्व स्वीकार नहीं किया । ये इसे माया, अविद्या और अज्ञानका ही प्रपंच मानते हैं ।
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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