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________________ भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान न्यायसिद्धान्तमुक्तावलीमें इसीको स्पष्ट करते हुए बताया है कि द्रव्यका जहाँ त्वगिन्द्रियके द्वारा स्पर्शन प्रत्यक्ष हुआ वहाँ त्वक् संयोग कारण है एवं द्रव्यमें समवेत जो स्पर्श उसके प्रत्यक्षमें त्वक् संयुक्त समवाय सन्निकर्ष कारण है । द्रव्य में समवेत स्पर्श उसमें समवेत स्पर्शत्व आदिके प्रत्यक्षमें त्वक् संयुक्त समवेत समवाय सन्निकर्ष कारण है । यहाँ — त्वक् संयोगमें भी महत्त्वावच्छिन्नत्व - उद्भूत स्पर्शावच्छिन्नत्व चाक्षुष प्रत्यक्षकी तरह स्वीकार करना है । इसी प्रकार गन्धके प्रत्यक्षमें घ्राण संयुक्त समवाय सन्निकर्ष कारण है । गन्ध समवेत गन्धत्व के घ्राणसे उत्पन्न प्रत्यक्षमें घ्राण इन्द्रिय संयुक्त समवेत समवाय सन्निकर्ष कारण है । इसी प्रकार रसके प्रत्यक्षमें रसना संयुक्त समवाय सन्निकर्ष कारण है । रस में समवेत (रसत्व) के रासन प्रत्यक्ष में रसना संयुक्त समवेत समवाय सन्निकर्ष कारण है । शब्द प्रत्यक्ष में श्रोत्रावच्छिन्न समवाय सन्निकर्ष कारण है । शब्दमें समवेत ( शब्दत्व) के श्रावण प्रत्यक्ष श्रोत्रावच्छिन्न समवेत समवाय सन्निकर्ष कारण है । यहाँ प्रत्यक्ष शब्दसे अलौकिक प्रत्यक्षका ही ग्रहण करना है और यह प्रमाण स्वरूप है । अतएव रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दका ज्ञान सन्निकर्ष द्वारा ही होता है । अतएव सन्निकर्षको प्रमाण मानना आवश्यक है । १४ आत्म प्रत्यक्षमें भी सन्निकर्ष ही प्रमाणभूत है । आत्मामें समवेत ( सुखादि) के मानस प्रत्यक्ष में मनः संयुक्त समवाय सन्निकर्ष कारण है । यतः आत्मामें समवेत सुखादि, सुखादिमें समवेत सुखत्वादिके मानस प्रत्यक्षमें मनः संयुक्त समवेत समवाय सन्निकर्ष कारण हैं | अभाव के प्रत्यक्षमें और समवायके प्रत्यक्षमें इन्द्रिय सम्बद्ध विशेषणता सन्निकर्ष कारण है । यथा'भूतलादौ घटाद्यभावः' अथवा 'घटाभाववद् भूतलम्' में चक्षु इन्द्रिय सम्बद्ध भूतल है । उसमें विशेषता घटाभावकी है । इसी प्रकार 'घटत्व समवायवान घट:' में चक्षु इन्द्रिय सम्बद्ध घट है उसमें विशेषण समवाय है अतः विशेषणता समवायकी है । वैशेषिक समवायका प्रत्यक्ष नहीं मानते । यद्यपि विशेषण विशेष्य भाव सन्निकर्ष में अभावको विशेषणता मानी गयी है । यथा--' घटाभाववद् भूतलम्' में भूतलादिमें घटाभावका प्रत्यक्ष चक्षु संयुक्त विशेषणता सन्निकर्षसे होता है । संख्या आदिमें रूपादिकके अभावका प्रत्यक्ष संयुक्त समवेत विशेषणता सन्निकर्षसे होता है । यथा चक्षु संयुक्त भूतल है उसमें समवेत संख्या उसमें विशेषता रूपादिके अभावकी है । संख्यात्वादिमें रूपाभावका प्रत्यक्ष संयुक्तसमवेत, समवेत विशेषता सन्निकर्षसे है । यथा - चक्षु संयुक्त भूतल, उसमें समवेत संख्या, उसमें समवेत संख्यात्व, उसमें विशेषणता है रूपादिके अभावको । क्योंकि रूपादिका अभाव संख्यात्वमें विशेषण है । शब्दाभावका प्रत्यक्ष श्रोत्रावच्छिन्न विशेषणता सन्निकर्षसे होता है मीमांसकों का अभिमत है - विशेषणतया तद्वद्भावानां ग्रहो भवेत् अर्थात् विशेषणता सन्निकर्षसे अभावोंका प्रत्यक्ष होता है । यह नैयायिकोंका कथन असंगत है । यतः अभावका प्रत्यक्ष होता ही नहीं । अतः अभाव प्रत्यक्षके अनुरोधसे विशेषण विशेष्यका सन्निकर्ष भाव स्वीकार करना व्यर्थ है । इस प्रश्नके उत्तरमें नैयायिकका कथन है कि मीमांसकके यहाँ अभावका ग्राहक कौनसा प्रमाण है । यदि अभावकी प्रतीतिका कारण ' अनुपलब्धि नामक प्रमाणको माना जाय तो वह अभावकी प्रतीति प्रत्यक्ष न रहकर परोक्ष रह जायगी । नैया
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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