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________________ प्रामाण्यवाद सन्निकर्ष प्रमाणवाद सन्निकर्षवादी नैयायिकोंका कथन है कि अर्थका ज्ञान कराने में सबसे अधिक साधक सन्निकर्ष है । यह विदित है कि चक्षुका घटके साथ संयोग होनेपर ही घटका ज्ञान होता है । जिस अर्थका इन्द्रियके साथ सन्निकर्ष नहीं होता उसका ज्ञान भी नहीं होता । यदि इन्द्रियोंसे असन्निकृष्ट अर्थका भी ज्ञान माना जायगा तो सबको सभी पदार्थोंका ज्ञान होना चाहिए, किन्तु देखा जाता है कि जो पदार्थ दृष्टिसे ओझल होते हैं उनका ज्ञान नहीं होता । दूसरी बात यह है कि इन्द्रिय कारक है और कारक दूर रहकर अपना कार्य नहीं कर सकता । अत इन्द्रियाँ जिस पदार्थसे सम्बन्ध नहीं करती उसे नहीं जान सकतीं क्योंकि वे कारक हैं । जैसे - बढ़ईका बसूला लकड़ीसे दूर रहकर अपना काम नहीं करता । इसी प्रकार इन्द्रियाँ भी पदार्थ से दूर रहकर पदार्थको नहीं जान पाती हैं । यह सार्वजनीन सत्य है कि स्पर्शन इन्द्रिय पदार्थको स्पर्श कर ही जानती है, बिना स्पर्श किये नहीं जानती । यही बात अन्य इन्द्रियों विषयमें भी समझनी चाहिए । सन्निकर्ष छः भेद हैं . (१) संयोग, (२) संयुक्त समवाय (३) संयुक्त समवेत समुदाय (४) समवाय (५) समवेत समवाय और (६) विशेषण विशेष्य भाव । चक्षुका वटादि पदार्थोंके साथ संयोग सन्निकर्ष है । घटादिमें समवाय सम्बन्धसे रहने वाले गुण कर्म आदि पदार्थोंके साथ संयुक्त समवाय सन्निकर्ष है । क्योंकि चक्षुका घटके साय संयोग सम्बन्ध है और उस घट में समवाय सम्बन्धसे गुण कर्म आदि रहते हैं तथा घटमें समवाय सम्बन्धसे रहने वाले गुणकर्म आदिमें समवाय सम्बन्धसे रहने वाले गुणत्व, कर्मत्व आदिके साथ संयुक्तसमवेतसमवाय सन्निकर्ष है । इसी तरह श्रोत्रका शब्दके साथ समवाय सन्निकर्ष है क्योंकि कर्णके छिद्रमें रहने वाले आकाशका ही नाम श्रोत्र है और आकाशका गुण होनेसे शब्द जहाँ समवाय सम्बन्धसे रहता है । शब्दत्वके साथ समवेत समवाय सन्निकर्ष है । इस घरमें घटका अभाव है । यहाँ घटाभावके साथ विशेषण विशेष्य भाव सन्निकर्ष है क्योंकि चक्षुसे संयुक्त गृहका विशेषण घटाभाव है । प्रथम प्रत्यक्ष ज्ञान ४, ३ अथवा २ के सन्निकर्षसे उत्पन्न होता है । बाह्यरूप आदिका प्रत्यक्ष ४ के सन्निकर्षसे होता है - आत्मा मनसे सम्बन्ध करता है, मन इन्द्रियसे और इन्द्रिय अर्थसे । खादिका प्रत्यक्ष ३ के सन्निकर्षसे होता है क्योंकि उसमें चक्षु आदि इन्द्रियाँ काम नहीं करतीं। योगियों को जो आत्माका प्रत्यक्ष होता है वह केवल आत्मा और मनके सन्निकर्ष - से ही होता है । अतः सन्निकर्षको ही प्रमाण मानना चाहिए !
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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