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________________ ४२८ भारतीय संस्कृति के विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान बमलता-यदि स्वप्नमें वनलताएँ हरी-भरी दिखलाई पड़े तो दो-तीन महीनेके भीतर अपरिमित धन मिलना है तथा घरमें कन्यारत्नकी प्राप्ति होती है। बाटिकाकी लताओंका यह फल नहीं होता। बनस्पति-यदि स्वप्नमें वनस्पतियोंके दर्शन हों तो मालीका कार्य करना पड़ता है। हरी-भरी वनस्पतियोंके दर्शन प्रेमिकासे मिलानेवाले होते हैं । वर्षा-स्वप्नमें पानीकी मूसलाधार वृष्टि होते हुए दिखाई पड़े तो व्यापारमें लाभ, घरेलू कार्योमें झगड़ा और मित्रोंसे वियोग होता है । सस्य-यदि स्वप्नमें सस्य दिखाई पड़े तो अपने कार्यकी उन्नति समझनी चाहिये । सिंह-स्वप्नमें सिंहके देखनेसे बल, प्रताप और पौरुषकी वृद्धि होती है । युद्ध क्षेत्रमें शत्रुओंके दांत खट्टे करने योग्य सामर्थ्य मिलती है। मतान्तरसे प्रतापी सन्तानको उत्पत्ति होती है। पौर्वात्य और पाश्चात्य स्वप्न-सिद्धान्तकी तुलना यदि तुलनात्मक दृष्टिसे पौर्वात्य और पाश्चात्य स्वप्न सिद्धान्तोंके ऊपर दृष्टिपात किया जाय तो अवगत होगा कि पौर्वात्योंके मतानुसार प्रतीक कल्पना ही सब कुछ है, पर पाश्चात्योंने प्रतीक कल्पनाके अतिरिक्त इच्छाओंकी स्वतन्त्रधाराके कारण अतृप्त इच्छाओं के उदयको भी स्वप्न बताया है, इसलिये जिस प्रकारको इच्छा स्वप्नमें दिखलाई पड़ती है, उस इच्छा जनित फल भी घट सकता है। जिन इच्छाओंको सार्थकता मिल चुकी है, यदि वे ही इच्छाएं पुनः स्वप्नमें आयें तो स्वप्न निरर्थक होते हैं। इसलिये पाश्चात्य गणकोंने अधिकांश रूपसे अतिरंजित इच्छाओंको ही स्वप्न बताया है, अतः जागृतावस्थामें भी स्वप्न सन्तति चल सकती है । लेकिन जागृतावस्थाको इच्छाएं संज्ञात इच्छाके आधीन रहनेसे फलोत्पादक नहीं होती हैं, क्योंकि रुख या अवदमित इच्छाएं संज्ञात-इच्छाके द्वारा शासित की जाती है, अतएव जागृतावस्थाकी विचारधारा स्वप्न रूपसे चलती रहती है, किन्तु इच्छाओंकी अनेकरूपताके अभाव, निस्सार होती है । पौर्वात्य स्वप्न-सिद्धान्तके अनुसार जागृतावस्थाकी विचार सन्ततिको स्वप्नका रूप नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि इस सिद्धान्तमें जागृत, सुषुप्त और स्वप्न ये तीन व्यक्तिकी अवस्थाएं बतलाई गई है । व्यक्ति केवल स्वप्नावस्थामें ही स्वप्न देखता है, क्योंकि यह अवस्था जागृति मोर सुषुप्तिके मध्यकी है, इसमें चैतन्य रूप इन्द्रियजन्य ज्ञान अजागृत रहता है अतः स्वप्न सम्बन्धी क्रियाएँ इसी अवस्थामें हो सकती है। इसलिये भारतीय सिद्धान्तके अनुसार सभी स्वप्नोंका फल एक सदृश नहीं हो सकता है । जिस व्यक्तिकी आत्मा जितनी अधिक विकसित, पवित्र और उज्ज्वल होगी, स्वप्नका फल भी उतना ही अधिक सत्य निकलेगा । क्योंकि जो व्यक्ति दुराचारी होगा, वह निरन्तर नाना प्रकारको चिन्ताएँ करता ही रहेगा, अतः स्वप्नमें उनका आना स्वाभाविक है । शारीरिक अस्वस्थताके कारण जो स्वप्न आते हैं, वे भी निरर्थक ही होते है क्योंकि बीमारीकी स्वप्नावस्था दूषित रहती है,. उसकी इन्द्रियजन्य ज्ञानधारा अधूरी रहती है। अतः पौर्वात्योंके मतमें बागृतावस्थामें स्वप्न सन्तति बन नहीं सकती है। पौर्वात्य और पाश्चात्योंके स्वप्न फलमें भी अन्तर है क्योंकि पौर्वात्योंने आत्मा एवं पुनर्जन्मादिका अस्तित्व माना है, अतः बहुत-से स्वप्न बम
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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