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________________ ३७७ ३७० ज्योतिष एवं गणित क्षेत्रफलके लिए त्रिलोकसार (गाथा ७६२) मेंअ%३ (+ व्या) उ; यह मान सूक्ष्म है । चाप = V४उ (ब्या - उ) -यह नियम आजकल भी प्रचलित है । जीवाके लिए त्रिलोकसार (गाथा ७६६) में बताया है जीवा = Vबाण२ - ६उ चापके लिए नियम(i) चाप = V ६ उ +१२ (२) (ii) चाप = ४ उ (उ+ 1 त्रिलोकसारके नियमोंके अध्ययनसे ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्यने चापार्घ जीवा और चापामें किसी प्रकारका अनुपातित सम्बन्ध प्राप्त किया है चापार्घ जीवा = / +उ द्वितीय कल्पना भी सम्भव हैअर्ध परिधि - /१० व्यासाई - १.व्या* N -/६ व्यासाद्ध + ४ व्यासादर त्रिलोकसारमें व्यासार्द्धके सम्बन्धमें एक समीकरण उपलब्ध होता है । यथाव्यासाद्ध = १-स -उस वृत्तका व्यासाद्ध है, जो स भुजीय वर्ग के बराबर है। अतएव ग = (१६) । गणितसार संग्रहमें वृत्त सम्बन्धी गणितका पर्याप्त विस्तार मिलता है । इसमें परस्परमें स्पर्श करनेवाले तीन और चार बराबर वृत्तोंके बीचका क्षेत्र निकाला गया है । यथा(i) C+Cg + h , बाध्य वृत्त परिधि C, अन्तःवृत्त परिधि (ii) Cy + Cg xh /P. " चौड़ाई CH + Cy xh = (२Pr, + २rry) (r, - r) १. ते णवसोडस माजिदावढें-त्रिलोकसार गाथा १८ २. विष्कम्यवर्गराशेर्वृत्तस्यकस्य सूक्ष्मफलम् । त्यक्त्वा समवृत्तानामन्तरजफलं चतुर्णा स्यात ॥ गणितसार, ७1८२३ पृ. २०१ ४८
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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