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________________ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान एकादिका गणना द्वचादिका संख्याता भवन्ति यादीनां नियमात् कृतिरिति संज्ञा ज्ञातव्या । यस्य कृतौ मूलमदनीय शेषे वर्गिते वर्षिते साकृतिरिति । एकस्य द्वयोश्च कृतिलक्षणाभावात् एकस्य नो कृतित्वं द्वयोरवक्तव्यमिति कृतित्वं त्र्यादीनामेव तल्लक्षणयुक्तत्वात् कृतित्वं युक्तम् । - माघवचन्द्र टीका ३५६ अर्थात् एकादिको गणना, दो आदिको संख्या एवं तीन आदिको कृति कहते हैं । एक और दो में कृतित्व नहीं है, यतः जिस संख्याके वर्ग में से मूलको घटानेपर जो शेष रहे, उसका वर्ग करनेपर उस संख्यासे अधिक राशिकी उपलब्धि हो वही कृति है । यह धर्म तीन आदि संख्याओमें ही पाया जाता है। एकके संख्यात्वका निषेध करते हुए लिखा है "दूहे को गणना संख्या न लभते यतः एकस्मिन् घाटा दो दृष्टे घटादि वस्तु दूदं तिष्ठति इत्यमेव प्रायः प्रवीतिरुपपद्यते, नैक संख्या विषयत्वेन अथवा दान समर्पणादि व्यवहार काले एकं वस्तु न प्रायः कश्चित् गणपति यतोऽसं व्यवहारार्यत्वादल्पत्वाद्वा नैको गणन संख्य लभते तस्माद् द्विप्रभृतिरेव गणनसंख्या । "" अर्थात् — एककी गिनती गणनासंख्यामें नहीं है, यतः घटको देख कर यहाँ घट है, इसकी प्रतीति होती है, उसकी तादादके विषयमें कुछ ज्ञान नहीं होता अथवा दान, समर्पणादि कालमें एक वस्तुकी प्रायः गिनती नहीं की जाती। इसका कारण असंव्यवहार सम्यक् व्यवहारका अभाव अथवा गिननेसे अल्पत्वका बोध होना है। उपर्युक्त वक्तव्यका परीक्षण करनेपर ज्ञात होता है कि संख्या 'समूह' की जानकारी प्राप्त करनेके हेतु होती है । मनुष्यको उसके विकासकी प्रारम्भिक अवस्थासे ही इस प्रकारका आन्तरिक ज्ञान प्राप्त है, जिसे हम सम्बोधन के अभाव में संख्या ज्ञान कहते हैं । अतएव समूहगत प्रत्येक वस्तुकी पृथक पृथक जानजारीके अभाव में समूहके मध्य में होनेवाले परिवर्तनका बोष नहीं हो सकता है । समूह बोधकी क्षमता और गिननेकी क्षमता इन दोनोंमें पर्याप्त अन्तर है । गिनना सीखनेसे पूर्व मनुष्यने संख्या ज्ञान प्राप्त किया होगा यतः इस क्रियाके लिए मानव मष्तिष्क के पर्याप्त श्रम करना पड़ा होगा । मनुष्यने समूहके बीच रहकर संख्याका बोध प्राप्त किया होगा। जब उसे दो समूहों को जोड़ने की आवश्यकता प्रतीत हुई होगी तो धन - चिह्न और धनात्मक संख्याएँ प्रादुर्भूत हुई होंगी । संख्या ज्ञानके अनन्तर मनुष्यने गिनना सीखा और गिननेके फलस्वरूप अंकगणितका प्रारम्भ हुआ । अंकका महत्व तभी व्यक्त होता है, जब हम कई समूहों में एक संख्याको पाते हैं। इस अवस्थामें उस अंककी भावना हमारे हृदयमें वस्तुओंसे पृथक् अंकित हो जाती है । १. अभिधान राजेन्द्र कोश, भाग ७, पृ० ६७ । से किं तं गणना संख्या १ एक्कोगणनं न उबेइ, दुप्यभि संख्या - अनुयोग द्वार सूत्र १४६ । एयादीय गया दो आदीया वि जाय संखेत्ति । तीयादीनं नियमा कविती सप्णावु बोदव्वा ॥ धवला टीका ९, १० २७६ ।
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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