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________________ ३५२ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान श्रीधराचार्यके ज्योतिर्ग्रन्थ और उनका परिचय दक्षिण भारतमें अनेक शताब्दियों तक ज्योतिष ज्ञानको धारा अबाधित रूपसे प्रवाहित होती रही है । ईस्वी सन् की ४ थी शताब्दीसे लेकर १२ वीं शताब्दी तक अनेक धुरन्धर ज्योतिर्विद दक्षिणमें हुए हैं। जैन गणित और ज्योतिषका प्रचार भी जितना दक्षिणमें था, उतना उत्तरमें नहीं । फलतः श्रीधराचार्यके बहुत ही कम ग्रन्थोंका प्रचार उत्तरमें हुआ है । जो दो-एक ग्रन्थ दक्षिणसे प्रतिलिपि हो उत्तरमें आये भी, उन्हें अपनेमें पचानेके लिये सम्प्रदाय विशेषके चिन्ह भूत मङ्गल श्लोक बदल दिये गये । अथवा यह भी संभव है कि प्रतिलिपि कर्ताको अन्य सम्प्रदाअके दृष्टदेवका नाम लिखना अभीष्ट न हो, इसलिये आसानीसे नाम बदल कर अपने इष्टदेवका नाम उस स्थानपर लिख दिया हो । अस्तु, ____ गणितसारके अन्तमें एक श्लोक मिलता है जिससे इनकी विद्वत्ताका अनुमान सहजमें ही लगाया जा सकता है : उत्तरतो हिमनिलयं दक्षिणतो मलयपर्वतं यावत् । प्रागपरोदधिमध्ये नो गणक: श्रीधरादन्यः ।। इससे स्पष्ट है कि श्रीधराचार्यकी कीत्ति कौमुदी उस समय समस्त भारतमें व्याप्त थी । ज्योतिषशास्त्रके मर्मज्ञ महामहोपाध्याय पं० सुधाकर द्विवेदीने इनकी प्रशंसा करते हुए कहा है कि : _ "भास्करेणाऽ'स्यानेकेप्रकारास्तस्करवदपहृताः। अहो सुप्रसिद्धस्य भास्करादितोऽपि प्राचीनस्य विदूषोऽन्यकृतिदर्शनमन्तरा समये महान् संशयः । प्राचीना एक शास्त्रमात्रकवेदिनो नाऽऽसन् ते च बहुश्रुता बहुवि षयवेत्तार आसन्नत्र न संशयः ।" __इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि श्रीधराचार्यके अनेक नियमोंको भास्कर जैसे धुरन्धर गणकोंने ज्योंका त्यों अपना लिया है। इनके उपलब्ध चार ग्रन्थोंमेंसे दो ग्रन्थ मुझे देखनेको मिले हैं। कुछ दिन पहले गणितार या विंशतिकाको नागरी अक्षरोंमें लिखी प्रति भारतीय ज्ञानपीठ काशीके तत्कालीन अध्यक्ष श्रीमान् पं० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य द्वारा प्राप्त हुई थी। यद्यपि इस समय वह प्रति मेरे समक्ष नहीं है, केवल संक्षिप्त नोट्स हैं । इन संक्षिप्त नोट्सोंके आधारपर इतना कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ गणित शास्त्रका अद्भुत है । इसमें अभिन्न . गुणन, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भिन्नसमच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, भागानुबन्ध, भागमातृजाति, पैराशिक, पंचराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक भाण्ड-प्रतिभाण्ड, मिश्र व्यवहार, भाजक व्यवहार, एक पत्रोपकरण, सुवर्णगणित, प्रक्षेपक गणित, समक्रय-विक्रय गणित, श्रेणीव्यवहार, क्षेत्रव्यबहार, एवं छायाव्यवहारके गणित. उदाहरण सहित दिये गये हैं । इस ग्रन्थका जैन एवं जनेतरोंमें बड़ा भारी प्रचार रहा है। गणित तिलककी संस्कृत भूमिकामें कहा गया है कि.... १. देखें गणकतरंगिणी, पृ० २४ ।
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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