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________________ ज्योतिष एवं गणित शकाब्दके वर्षोंको क्रिया करते समयके शकाब्दके वर्षों मेंसे घटाकर अन्य क्रियाका विधान बतलाता है । उदाहरणार्थ ग्रहलाघव आदि करण ग्रन्थोंको लिया जा सकता है। इन ग्रन्थोंके रचयिताओंने अपने समयके शकाब्दको घटानेका विधान बताया है। अतएव यह निश्चित है कि श्रीधराचार्यने भी अपने समयके गत शकान्द और वर्तमान शकान्दको घटाने का विधान कहा है। जहां इन्होंने क्रिया करते समयके शकाब्दमेंसे ७२० को घटाने का विधान निर्देश किया है, वहाँ वह गत शकाब्द माना जायगा और जहाँ ७२१ के घटाने का कथन है, वहाँ वह वर्तमान शक है । इसके अलावा एक अन्य प्रमाण यह भी है कि प्रकारान्तरसे मासधूवानयनमें ७२१ को करणाब्दकाल बतलाया है, जिससे निश्चित है कि ७२१ शकमें ज्योतिर्ज्ञानविधिको रचना करथि न्यूनं शकाब्दं करणाब्दं रयगुणं द्विसंस्थाप्य । रागहृतमदोलब्धं गतमासांश्चोपरि प्रयोज्य पुनः ॥१॥ संस्थाप्याधो राधागुणिते खगुणं तु वर्षरेखादि ? संत्याज्ये नीचाप्ते लब्धा वारास्तु शेषाः घटिकाः स्युः ।।२।। ज्यो० पृ० ५ अर्थात्-करथि-७२१ करणाब्द शकको वर्तमान शकमेंसे घटाकर १२ से गुणा कर गुणनफलको दो स्थानोंमें रखना चाहिये । एक स्थानपर ३२ से भाग देनेसे जो लब्ध आये उसे गतमास समझना और इन गतमासोंको अन्त स्थानवाली राशि में जोड़ देना चाहिये । पुनः तीन स्थानोंमें इस राशिको रखकर एक स्थानमें ९२ से, दूसरे) २ से और तीसरेमें २२ से गुणाकर क्रमशः एक दूसरेका अन्तर करके रख लेना । जो संख्या हो उसमें ६२ से भाग देनेपर लब्ध वार और शेष घटिकाएं होती हैं । यहाँपर ७२१ शक संवत् प्रन्थ रचनाका समय बताया गया है। महावीराचार्यने इसीलिये अपने पूर्ववर्ती जैन धर्मानुयायी घोषराचार्यका अनुसरण किया है। हाँ, यहाँपर एक शंकास्पद बात यह रह जाती है कि 'जातक तिलक' का जो रचनाकाल माना है, उसके साथ कैसे समन्वय होगा? इस शंकाका उत्तर यह है कि जहाँ तक मुझे मालूम है 'जातक तिलक' में ग्रन्थकर्ताने रचनाकाल नहीं दिया है, केवल भाषा आदिके आधारपर उसका रचनाकाल निश्चित किया गया है । अतएव इनका समय १०४९ ईस्वी नहीं माना जा सकता। इनको प्राचीनताका एक अन्य प्रमाण यह भी है कि गणितसारके गणित सम्बन्धी जो सिद्धान्त हैं, उनका जैन सम्प्रदायमें ईस्वी सन् ३ री और ४ थी शताब्दीमें खूब प्रचार था। प्राचीन गणितके अन्वेषक विद्वानोंने इस बातको स्वीकार कर लिया है कि वृत्तक्षेत्रकी परिधि निकालनेका नियम "व्यास वर्गको दससे गुणाकर वर्गमूल परिचि होती है" जैन सम्प्रदाय का है । वर्तमानमें उपलब्ध सूर्य सिद्धान्तसे पहलेके जैन ग्रन्थोंमें यह करण सूत्र पाया जाता है। जैनेतर प्रायः सभी ज्योतिर्विदोंने इस सिद्धान्तको समालोचना की है तथा कुछ लोगोंने जोरदार खण्डन भी। श्रीधराचार्यने जैन मान्यताके इसी सूत्रका अनुसरण किया है तथा प्राचीन जैन गणितके मूल तत्त्वोंका विस्तार किया है । अतएव यह मानना पड़ेगा कि इनका समय इस्वी सन् की ८बी सदीका अन्तिम पाव है।
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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