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________________ ३४० भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान विशेषरूपसे हुआ है। इस कालमें स्वतन्त्र ग्रन्थ तो लिखे ही गये पर उक्त विषयके कई संग्रह ग्रंथ तथा भाष्य भी लिखे गये; जिनमें आज केवल दो-चार ही उपलब्ध हैं। आचार्य ऋषिपुत्रके अन्यत्र उपलब्ध उद्धरणोंसे पता चलता है कि इनके भी उपर्युक्त विषयोंके कई ग्रन्थ थे; लेकिन अभी तक इनका एक निमित्तशास्त्र ही उपलब्ध हुआ है, जिसका प्रकाशन एवं सम्पादन पं० वर्धमान शास्त्री शोलापुरने किया है। वाराही-संहिता और अद्भुतसागरमें प्राप्त इनके विपुल उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि इन्होंने संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं में ग्रन्थ रचना की है। जैनाचार्य ऋषिपुत्रके महत्त्वपूर्ण उद्धरण बृहस्पतिसंहिताकी भट्टोत्पली टीका है और भट्टोत्पलने बृहज्जातककी टीकामें अपने सम्बन्धमें बताया है कि "फाल्गुनस्य द्वितीयायामसितायां गुरोदिने । वस्वष्टाष्टमिते शाके कृतेयं विवृत्तिर्मया ।" अर्थात् शक ८८८ में बृहज्जातककी टीका रची है, तथा बृहत्संहिताको टीका इससे भी पहले बनाई गई है । संहिताकी टीका इन्होंने आर्यभट, कणाद, काश्यप, कपिल, गर्ग, पराशर, बलभद्र, ऋषिपुत्र, भद्रबाहु आदि कई जैनाजैन आचार्योंके वचन उद्धृत किये हैं. इस टीकासे स्पष्ट मालूम पड़ता है कि भट्टोत्पलने अपने पूर्ववर्ती प्रायः सभी संहिताकारोंकी रचनाओंका अध्ययन कर उक्त टीका लिखी है। आचार्य ऋषिपुत्रके वचन राहुचारके प्रतिपादनमें निम्न प्रकार उद्धृत किये गये हैं यावतोऽशान् ग्रसित्वेन्दोरुदयत्यस्तमेति वा। तावतोऽशान् पृथिव्यास्तु तम एव विनाशयेत् ।। उदयेऽस्तमये वापि सूर्यस्य ग्रहणं भवेत् । तदानृपभयं विद्यात् परचक्रस्य चागमम् ॥ चिरं गृह्णाति मोमाकों सर्व वा असते यदा। हन्यात् स्फीतान् जनपदान् वरिष्ठांश्च जनाधिपान् ॥ ग्रंष्मेण तत्र जीवन्ति नराश्नाम्बुफलेन वा। भयदुभिक्षरोगैश्च सम्पीड्यन्ते प्रजास्तथा। •-सवि० बृ० पृ० १३४-१३५ उपर्युक्त पद्य आचार्य ऋषिपुत्रके नामसे अद्भुतसागरके 'राहोरद्धृतवार्तः' नामक अध्यायमें “अथ चिरग्राससर्वग्रासयोः फलम् तत्र ऋषिपुत्रः" इस प्रकार लिखकर दो स्थानोंमें. उद्धृत किये गये हैं। इन श्लोकोंमें "शस्यैर्न तत्र जीवन्ति नरा मूलफलोदकैः" इतना और अधिक पाठ मिलता है। इन्हीं पद्यों से मिलता-जुलता वर्णन इनके "प्राकृत निमित्त-शास्त्र" में है; पर वहाँकी गाथाएँ छाया नहीं है। अस्तु, उपर्युक्त कथनसे इतना स्पष्ट है कि आचार्य ऋषिपुत्र भट्टोत्पलके पूर्व अर्थात् शक सं० ८८८ के पहले विद्यमान थे और शक सं० की ८वों तथा ९वीं शताब्दीमें इनकी रचनाएँ अत्यन्त लोकादृत थीं । सर्वत्र उनका प्रचार था। इसका एक सबल प्रमाण यह भी है कि शक सं० १०८२ में राजगद्दी पानेवाले मिथिलाधिपति महाराज लक्ष्मणसेनके पुत्र महाराज बल्लालसेन द्वारा शक सं० १०९० में संग्रहीत अद्भुतसागरमें वराह, वृद्धगर्ग, देवल, यवनेश्वर, मयूरचित्र, राजपुत्र, ऋषिपुत्र, ब्रह्मगुप्त, बलभद्र, पुलिश,
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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