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________________ ४० ज्योतिष एवं गणित अथवा चान्द्र दिन एक अयनसे दूसरे अयन-पर्यन्त होते हैं । चान्द्र दिनमें ३० से भाग दें तो लब्ध मास और शेष तिथि आयेगी। अतः १८६ : ३० - ६ + ६ यहां पर मासोंको छोड़ दिया, क्योंकि प्रयोजन नहीं है; इसलिये ६ तिथिका ग्रहण किया। इससे सिद्ध हुआ कि प्रथम तिथिसे द्वितीय तिथि ६ अधिक होती है। अतः १ + ६ = ७, ७+ ६ = १३, १३ + ६ - १९, १९ + ६ = २५, क्रम से १, ७, १३, १९, २५, १, ७, १३, २५ यहाँ पर जो संख्या १५ से अधिक है उसमें १५ का भाग देकर लब्धको छोड़ दिया और शेषको ग्रहण किया तो १, ७, १३, ४, १०, १, ७, १३, ४, १० यह हुआ। अब दक्षिणायनसे गणनाको जाय तो प्रथम तिथि-संख्या दक्षिणायनमें और दूसरी उत्तरायणमें आयेगी । नक्षत्र लानेकी उपपत्ति ___एक सौर वर्ष में चान्द्र दिन ३७२ और एक युग ५ वर्षका होता है, इसलिये इसमें रवि भगण ५ सौर मास ६० सौर दिन १८००, चान्द्र मास ६२, चान्द्र दिन १८६०, क्षय दिन ३० भभ्रम वा नक्षत्रोदय १८३०, चान्द्र भगण ६७, चान्द्रसावन दिन १७६८, एक सौर वर्षमे सावन दिन ३६६, एक वर्ष में नक्षत्रोदय ३६७, एक अयनसे दूसरे अयन-पर्यन्त सौर दिन १८०, एक अयनसे दूसरे अयन तक सावन दिन १८३, २७ नक्षत्रोंका भोग एक ही भगणमें होता है। ३६० भगण .. २७ - गण - सौरांश = १ नक्षत्र-१०-१४. = १३२. यह द्वितीय अयनका नक्षत्र-भाग हुआ। इस प्रकारसे द्वितीय अयन पुष्यार्धमें उपपन्न हुआ । इस प्रकारसे आचार्यकी नक्षत्र-वासना युक्ति-संगत है और इसी प्रकारसे नक्षत्र-आवृत्ति अयन की वासना संगत-सिद्ध होती है। यदि इसी पञ्चवर्षात्मक युगको मानकर आजकल भी आचार्यकृत करण-सूत्रोंके आधारसे सारिणी बनाई जाये तो पञ्चांग आसानीसे बन सकता है । आधुनिक प्रचलित पञ्चांग प्रायः वेदाङ्ग-ज्योतिषके आधारपर है । परन्तु वेदाङ्ग-ज्योतिष की मूल भित्तिको ही लेकर बादके अजैन ऋषियोंने उसमें बड़ा सुधार किया है। इसी प्रकार जैन ज्योतिषके नियमोंसे भी यदि सारणी बनानेका परिश्रम किया जाय तो जैन ज्योतिष भी विकसित होकर महत्त्वपूर्ण ही नहीं किन्तु समस्त फलित, गणित, सिद्धान्त-सम्बन्धी ज्योतिषशास्त्रमें गणमान्य स्थानको प्राप्त हो जायेगा। हमारे जैन ज्योतिषमें फलितके अनेक ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। निमित्त-शास्त्र जिनका फल बहुत ठीक घटता है ऐसे अनेक ग्रन्थ जैनियोंके भी मौजूद हैं । कुछ ग्रन्थ निमित्त-शास्त्र-सम्बन्धी जैन सिद्धान्त-भवन आरामें भी मौजूद हैं। इनपर पुनः समय मिलनेपर प्रकाश डाला जायगा । गति-विचार __ आचार्य ने सूर्य-चन्द्रमाकी गति प्रथम योजनात्मक बतलाई है। फिर उसको कलात्मक करनेकी युक्ति भी बतलाई है। इस प्रकारसे आचार्यने ग्रहगणितकी उपयोगिताके लिये दो तरहकी गति निकाली है। फिर क्रमसे प्रतिदिनके गतिमानके वृद्धि-हासको भी बतलाया है। उन्होंने सूर्यकी १८४ वीथी मानी है। प्रतिदिन सूर्य अपनी गतिसे एक वीथीको तय करता है-यह योजनात्मक गति है और जो गगन-खण्ड मान कर सूर्यादि ग्रहोंकी गति ४०४०
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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