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________________ ज्योतिष एवं गणित ३११ अतः संयोग-वियोग, सुख-दुःख, सौभाग्य- दुर्भाग्य निरपेक्ष रूपसे कार्य-कारण सिद्धान्त द्वारा परिचालित होते हैं । यहाँ यह स्मरणीय है कि मनुष्य की क्रिया-प्रतिक्रिया, घटना और फलके विषयमें ईश्वर या अन्य परोक्ष सत्ता हस्तक्षेप नहीं करती । प्रत्येक घटना व्यक्तिके पूर्व जन्मके संस्कारवश ही घटित होती है । अतः कर्म और पुनर्जन्म उस बीजके समान हैं जो स्वयं वृक्ष रूपमें प्रस्फुटित होता है, जिसमें फल लगते हैं और वे पुनः बीजों को उत्पन्न करते हैं, जिनसे नये वृक्षों का जन्म होता है | अतः कर्म संस्कार बीज रूप है । यह बीज और वृक्षको परम्परा अनादिकालीन है विश्लेषण करता है । और जीवधारी का जीवन वृक्ष रूपमें जातक तत्त्व इस परम्पराका ही । जातक तत्वको अवगत करनेके लिए कर्म सिद्धान्तका और अधिक स्पष्टीकरण अपेक्षित है । दर्शनका यह सिद्धान्त है कि अजर, अमर आत्मा कर्मोंके अनादि प्रवाहके कारण पर्यायों को प्राप्त करता है । हमारी दृश्य सृष्टि केवल नाम रूप या कर्म ही नहीं है, किन्तु इस नामरूपात्मक आवरण के लिए आधारभूत एक अरूपी, स्वतन्त्र और अविनाशी आत्म तत्त्व है । तथा प्राणी मात्र के शरीर में रहनेवाला यह तत्त्व नित्त्य एवं चैतन्य है, पर कर्मबन्ध के कारण यह परतन्त्र और नाशवान दिखलाई पड़ता है । कर्मके तीन भेद हैं- प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण । किसीके द्वारा वर्तमान क्षण तक किया गया जो कर्म है - चाहे वह इस जन्ममें किया गया हो या पूर्व जन्मोंमें सब संचित कहलाता है । अनेक जन्म-जन्मान्तरोंके संचित कर्मोंको एक साथ भोगना सम्भव नहीं है, क्योंकि इनसे मिलनेवाले परिणाम स्वरूप फल परस्पर विरोधी होते हैं । अतः इन्हें क्रमश: भोगना पड़ता है । संचित में से जितने कर्मोंको पहले भोगना आरम्भ किया जाता है, उतनेको प्रारब्ध कहते हैं । तात्पर्य यह है कि संचित अर्थात् समस्त जन्म-जन्मान्तरोंके संग्रहमें से एक छोटे भेदकी संज्ञा प्रारब्ध है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि समस्त संचितका नाम प्रारब्ध नहीं । किन्तु जितने भागका भोगना आरम्भ हो गया है, प्रारब्ध है, जो अभी हो रहा है या जो अभी किया जा रहा है, वह क्रियमाण है । इस प्रकार इन तीन तरहके कर्मोंके कारण आत्मा अनेक जन्मों, पर्यायोंको धारण कर संस्कारोंका अर्जन करता चला आ रहा है । आत्मा के साथ अनादिकालीन कर्म प्रवाहके कारण लिंग शरीर और भौतिक स्थूल शरीरका सम्बन्ध है । जब एक स्थान से आत्मा इस भौतिक शरीरका त्याग करती है, तो लिंग शरीर या सूक्ष्म शरीर उसे अन्य स्थूल शरीरकी प्राप्ति में सहायक होता है । इस स्थूल भौतिक शरीरमें यह विशेषता है कि इसमें प्रवेश करते ही आत्मा जन्म-जन्मान्तरोंके संस्कारोंकी निश्चित स्मृतिको खो देता । यही कारण है कि ज्योतिषमें प्राकृत ज्योतिष के आधारपर बताया गया है कि यह आत्मा मनुष्यके वर्तमान स्थूल शरीरमें रहते हुए भी एक से अधिक जगत् के साथ सम्बन्ध रखता है । मानवका भौतिक शरीर प्रधानतः ज्योतिः, मानसिक और पौद्गलिक इन तीन उपशरीरोंमें विभक्त है । यह ज्योतिः उपशरीर द्वारा नाक्षत्र जगत्से, मानसिक उपशरीर द्वारा मानसिक जगत्से और पौद्गलिक उपशरीर द्वारा भौतिक जगत्से सम्बद्ध है । अत मनुष्य प्रत्येक जगत्से प्रभावित होता है और अपने भाव, विचार और क्रिया
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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