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________________ २७० भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान को चन्द्रग्रहणका कारण माना है। केतु, जिसका ध्वजदण्ड सुर्यके ध्वजदण्डसे ऊँचा है, भ्रमवश वही केतु सूर्यग्रहणका कारण होता है। दिनवृद्धि और दिनह्रासके समम्बन्धमें भी समवायांग में विचार-विनिमय किया गया है। सूर्य जब दक्षिणायनमें निषधपर्वतके अभ्यांतर मण्डलसे निकलता हुआ ४४ वें मण्डल-गमन मार्गमें आता है, उस समय ६१ मुहूर्त दिन कम होकर रात बढ़ती है-इस समय २४ घटीका दिन और ३६ घटीकी रात होती है। उत्तर दिशामें ४४ वें मंडल-गमन मार्गपर जब सूर्य आता है, तब ६३ मुहूर्त बढ़ने लगता है और इस प्रकार जब सूर्य ९३ वें मण्डलपर पहुंचता है, तो दिन परमाधिक ३६ घटीका होता है । यह स्थिति आषाढीपूर्णिमाको घटती है ।' ___ इस प्रकार जैन आगम ग्रंथोंमें ऋतु, अयन, दिनमान, दिनवृद्धि, दिनह्रास, नक्षत्रमान, नक्षत्रोंकी विविध संज्ञाएँ, ग्रहोंके मण्डल, विमानोंके स्वरूप जौर विस्तार, ग्रहोंकी आकृतियों आदिका फुटकर रूपमें वर्णन मिलता है। यद्यपि आगम ग्रंथोंका संग्रहकाल ई० सन् की आरम्भिक शताब्दी या उसके पश्चात् ही विद्वान् मानते हैं, किन्तु ज्योतिषकी उपर्युक्त चर्चाएँ पर्याप्त प्राचीन हैं । इन्हीं मौलिक मान्यताओंके आधारपर जैन ज्योतिषके सिद्धान्तोंको ग्रीकपूर्व सिद्ध किया गया है । ऐतिहासज्ञ विद्वान् गणित ज्योतिष से भी फलित को प्राचीन मानते हैं । अतः अपने कार्यों की सिद्धि के लिये समयशुद्धि की आवश्यकता आदिम-मानव को भी रही होगी । इसी कारण जैन आगम ग्रन्थों में फलित ज्योतिषके बीज-तिथि नक्षत्र, योग, करण, वार, समयशुद्धि, दिनशुद्धि आदिका चर्चाएं विद्यमान हैं। जैन ज्योतिष-साहित्यका सांगोपांग परिचय प्राप्त करनेके लिये निम्न चार कालखण्डोंमें विभाजित कर हृदयगम करने में सरलता होगी। आदिकाल-ई० पू० ३०० में ६०० ई० तक । पूर्वमध्यकाल-६०१ ई० से० १००० ई० तक । उत्तर मध्यकाल-१००१ ई० से १७०० ई० तक । अर्वाचीन काल-१७०१ से १९६० ई० तक । आदिकालकी रचनाओं में सूर्य प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, अंगविज्या, लोकविजययन्त्र एवं ज्योतिष्करण्डक आदि उल्लेखनीय है। सूर्यप्रज्ञप्ति प्राकृत भाषा में लिखित एक प्राचीन रचना है । इसपर मलयगिरिकी संस्कृत टीका है। ई० सन् से दो दौ वर्ष पूर्वकी यह रचना निर्विवाद सिद्ध है । इसमें पंचवर्षात्मक युग मानकर तिथि, नक्षत्रादिका साधन किया गया है । भगवान महावीरकी शासन तिथि श्रावणकृष्ण प्रतिपदासे, जबकि चन्द्रमा अभिजित् नक्षत्रपर रहता है, युगारम्भ माना गया है। १. वहिराओ उत्तराअषं कट्ठाओ सूरिए पठमं अयमाणे चोयालिस इमे मंडलगते अट्ठासीति एगसट्ठि भागे मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस मिवुडढ़े त्ता रयणिखेत्तस्स अमिनिवुठेत्ता सूरिए चारं चरइ-स० ९२-७ । २. चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थके अन्तर्गत 'ग्रीकपूर्व जैन ज्योतिष विचारधारा' शीर्षक निबन्ध, पृ० ४६२ ।
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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