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________________ ४८ २५८ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान अभ्यन्तर चन्द्रवीथिकी परिधि ३१५०८९ योजन तथा त्रिज्या-जम्बूद्वीपके मध्य बिन्दुसे ४९८२० योजन है, यदि का मान /१० अथवा प्रायः ३.१६ लिया जाय तो परिधि (४९८२०)x२x ३.१६ = ३११७०२.४ योजन आती है। बाह्यमार्गकी परिधिका प्रमाण ३१८३१३४३४ योजन है । जब त्रिज्या बढ़ती है, तब परिधि पथ बढ़ जाता है और नियत समयमें ही वह पथ पूर्ण करनेके लिए चन्द्र और सूर्य दोनोंकी गतियां बढ़ती जाती हैं । जिससे वे समानकालमें असमान परिधियोंका अतिक्रमण कर सकें । उनकी गतिकालके असंख्यातवें भागमें समानरूपसे बढ़ती हुई अग्रसर होती है और यह गतिसमत्वरण (uniform acceleration) कहलाती है, तथा अन्तःमार्गकी ओर आते हुए ग्रहोंकी गति समविमन्दन (uniform retarcation) कही जाती है । चन्द्रमाकी रेखीय गति (Jinear Velocity) अन्तःवीथिमें स्थित होनेपर ४८ मिनट में ३१५०८९ : ६२३३५ - ५०७३१७४३५ योजन होती है। अतः एक मिनटकी गति २०७४४.४९४५= ४८०४४०२ मील जब चन्द्रमा बाह्य परिधिमें स्थित रहता है, तब गात ४८ उसकी गति एक मिनटमें प्रायः-५१२५४४५४५ = ४८५२७३२१ मील रहती है। ग्रहण विषयक विशेषता ग्रहणके सम्बन्धमें प्राचीन कालसे ही विचार हो ता आ रहा है। जिस प्रकार मेघ सूर्यको ढंक देता है, वैसे ही राहु चन्द्र को और केतु सूर्यके विमानको आच्छादित कर देता है । इस मान्यताको समीक्षा उत्तरकालीन ज्योतिषियोंने करते हुए ग्रहणका यथार्थ कारण अवगत कर गणित द्वारा आनयनका प्रयास किया है। छादक, छादय, छादनकाल और छादनकी स्थितिका आनयन गणित प्रक्रिया द्वारा किया गया है । तिलोयपण्णत्तीमें राहु और केतु को ग्रहणका कारण बतलाया है तथा गणित विधि द्वारा ग्रहणकी आनयन विधिको प्रस्तुत किया है। यन्त्रराजमें सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहणका विवेचन करते हुए लम्बन, और नतिका आनयन कर ग्रहणकी स्थिति ज्ञात की है । तिलोयपण्णत्तीमें चन्द्रमाकी कलाओं और ग्रहणको अवगत करनेके लिए चन्द्र बिम्बसे चार प्रमाणांगुलि नीचे कुछ कम एक योजन विस्तार वाले कृष्ण वर्णके दो प्रकार के राहुओंकी कल्पना की गयी है। इनमें एक तो दिन राहु और दूसरा पर्व राहु है। राहुके विमानका बाहुल्य ३५० योजन है । दिन राहुकी गति चन्द्रमाकी गतिके समान मानी गयी है और उसे ही चन्द्रकलाओंका कारण कहा है। पर्व राहु चन्द्रग्रहणका कारण है। राहुका इस स्थितिमें आना गति विशेषके कारण नियमित रूप से होता है । सूर्यके १८४ वलय माने हैं। प्रत्येक वलय का विस्तार सूर्य व्यासके समान है, तथा प्रथम वलय और मेरुके बीचका अन्तराल ४४८२० योजन है । चन्द्रका भी इतना ही अन्तराल माना गया है । प्रत्येक वलय वीथिका अन्तराल दो गोजन है। जम्बूद्वीप १. तिलोयपण्णत्ति, गाथा ७।१८९ तथा ७।१७८ २. वही १८६ ३. तिलोयणण्णत्ति ७।२०१, ४. वही, गाथा ७।२१६, -२१५
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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