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________________ जैन वाङ्मय में संगीत संगीत शास्त्रकी उत्पत्ति जैन दृष्टिकोणसे क्रियाविशाल नामक तेरहवें पूर्व से हुई है । संगीत शास्त्रके विविध सिद्धान्तोंका निरूपण इसी पूर्व में आया है। छन्द, अलंकार, काव्यके गुण दोष एवं ७२ कलाओंका नौ करोड़ पदों द्वारा वर्णन किया गया है। __ जैन आचार्यों द्वारा लिखित संगीतको प्रमुखतः चार भागोंमें विभक्त कर विवेचन सम्भव है । प्रथम वर्गमें दार्शनिक ग्रन्थों में निहित संगीत, द्वितीय में पुराण और काव्य ग्रन्थोंमें निहित संगीत, तृतीयमें स्वतन्त्र रूपसे लिखा गया संगीत साहित्य एवं चतुर्थमें प्रायोगिक संगीत ग्रन्थ हैं। दार्शनिक ग्रन्थोंमें तत्त्वार्थसूत्रके पंचम अध्यायके २४ वें सूत्र-"शब्दबन्धसौदम्य स्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोद्योतवन्तश्च" की टीकामें शब्दकी व्याख्या करते हुए पूज्यपाद अकलंकदेव और विद्यानन्द आदि सभी आचार्योंने शब्द के दो भेद बतलाये हैं-भाषात्मक और अभाषात्मक । अभाषात्मक शब्दोंके भी दो भेद हैं-प्रायोगिक और वैनसिक । प्रायोगिक शब्दोंके अन्तर्गत ही वाद्यध्वनि, कंठध्वनि और पदध्वनिका समावेश किया है । वाद्यध्वनिमें चार प्रकारके वाद्योंको प्रमुखता दी है । तत, वितत, घन और सौषिर। "तत्र चर्मतनननिमित्तः पुष्करभेरोद्राविप्रभवस्ततः । तन्त्रीकृतवाणासुघोषाविसमुद्भवो विततः । तालघण्टालालनाअभिघातजो धनः । वंशशंङ्खाविनिर्मितः' सौषिरः । वर्तमान संगीतमें तत और विततके अर्थ बदले हुए हैं। आचार्य अकलंक देवने इसी सूत्रके व्याख्यानमें बताया है कि प्रायोगिक शब्द पुरुषके पुरुषार्थ द्वारा उत्पन्न होता है । इसमें तीव्र, मन्द और माधुर्य आदि भेद उत्पन्न किये जाते हैं । अकलंकने-"प्रयोगः पुरुषकायवामनःसंयोगलक्षणः" अर्थात् पुरुषका काय, वचन और मनके संयोगसे नाद विशेषको उत्पन्न करना प्रायोगिक शब्द है। वीर्यान्तराय ज्ञानावरणका क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्मके उदयसे आत्माके द्वारा शरीरके विभिन्न अंगोंसे जो वायु बाहर निकाली जाती है, उससे नाद उत्पन्न होता है । हृदयमें नाभिके उपर ब्रह्मस्थानमें प्राणवायुसे एक प्रकारका शब्द होता है, वही मुख द्वारा प्रकाशित होता है, उसी को नाद कहते हैं । इस प्रकार आचार्य अकलंकदेवने जीवजन्य शब्द और पुद्गलजन्य ध्वनि आदि भेद कर अमधुर और सुमधुर ध्वनियोंका कथन भी किया है। पूज्यपादने केवल वाद्यध्वनिका ही वर्णन किया था, पर अकलंक देवने कण्ठध्वनिका वर्णनकर स्वर विद्या, ग्राम, राग आदि का भी कथन किया है। यह सत्य है कि अकलंक देवका यह वर्णन दार्शनिक है, संगीतात्मक नहीं, पर इसमें संगीतके सभी तत्त्व आ गये हैं । आद्य ध्वनिका वर्णन अकलंक देवका भी पूज्यपादके समान ही है । विद्यानन्दने तो संगीतके सम्बन्धमें और विशेष प्रकाश डाला है। गायन, वादन और नर्तनको संगीतका अंग मानते हुए सप्तस्वरका भी कथन किया है । आचार्य वीरसेनने अपनी धवला टीकामें वीणा 'मातोखमिति' लिखकर वीणा जैसे १. सर्वार्थसिद्धि टीका ५।२४ को टीका २, षवलाटीका, जिल्द १, पृ० ८७
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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