SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भक्ति, संगीत एवं ललित कलाएँ २२३ (१) दानपारमिता-संसारके समस्त प्राणियोंके लिये निष्काम भावसे दान देना हो दानपारमिता है । संसारके दुःखोंका कारण सर्वपरिग्रह माना गया है । अतएव अपरिग्रह मुक्तिका विधायक है। दान पारमिताके प्राप्त होनेपर साधकमें किसी वस्तुके प्रति ममत्वका भाव शेष नहीं रह जाता। वह समस्त प्राणियोंमें अपना ही रूप देखता है । इस पारमिताकी पूर्ण सफलताके लिये साधकको शठता, मात्सर्य, ईर्ष्या, पैशुन्य और भावलीनता जैसे विकारोंका पूर्ण परित्याग करना पड़ता है । इनके परित्याग कर लेनेपर ही दानपारमिता अपनी पूर्णताको प्राप्त होती है। (२) शीलपारमिता-शीलका अर्थ है गहित और कुत्सित कर्मोंसे चित्तको विरक्त रखना । दूसरे शब्दोंमें हम विरक्तिको ही शील कह सकते हैं। इसमें चित्तको शुद्ध, मनको स्थिर और शरीरको स्वस्थ रखनेकी आवश्यकता होती है। स्मृतिका अर्थ है विधि तथा प्रतिषिद्धका स्मरण रखना । जो व्यक्ति विधि निषेधोंका पूर्णतया स्मरण रखते हुए उनका आचरण करता है शीलपारमिताका वही अधिकारी है। प्रतिसमय अपने मन और शरीरका निरीक्षण करते हुए उनमें किसी भी प्रकारका विकार उत्पन्न न हो, इसका प्रयास ही शील है । शीलके बिना सम्बोधिकी प्राप्ति नहीं होती। अतः शीलपारमिताका सम्बन्ध भक्तिके साथ है। (३) शान्तिपारमिता-इस पारमिताकी आवश्यकता रागद्वेषादिके शमनार्थ पड़ती है । शान्ति तीन प्रकारकी है-(१) दुःखादिवासनाशान्ति (२) परोपकारमर्षण शान्ति और (३) धर्मनिध्यानशान्ति । पहले प्रकारको शान्ति वह दशा है, जिसमें अत्यन्त कष्टोंके होते हुए भी किसी प्रकारका दुर्भाव नहीं पैदा होने पाता। इस दुर्भावके प्रतिकारके हेतु मुदिता नामक स्थितिका समुचित आचरण करना होता है। दूसरे प्रकारकी शान्ति सहिष्णुता द्वारा प्राप्त होती है। साधक दूसरों द्वारा किये हुए अपकारोंको सहन करता है। सभी अवस्थाओंमें क्रोधका त्यागकर धर्ममें निरत रहना ही धर्मनिध्यान शान्ति कहलाती है । शान्ति पारमितामें भक्त या साधकका हृदय सहनशील हो जाता है और आराध्यरूप बननेकी चेष्टा करता है । (४) वीर्यपारमिता--वीर्यका अर्थ है कर्म करनेका उत्साह । बौद्धधर्ममें कर्मवादको महत्त्व दिया गया है। मनुष्य अपने शुभकर्मोंसे ही निर्वाण प्राप्त करता है। कर्मों में उत्साहपूर्वक प्रवृत्ति रखना ही वीर्यपारमिता है। कर्म भी दो प्रकारके होते हैं--एक कुशल, दूसरे अकुशल । कुशलकर्म करने में उत्साह और अकुशल कर्मोंके प्रति अनुत्साह होना चाहिए। इसके लिये आलस्य आदिका त्याग करना पड़ता है और कर्म करनेके प्रति जागरूक रहना पड़ता है। उत्साह पूर्वक किये गये कुशल कर्मोके करनेसे मनुष्यका विवक्षित चित्त स्थिर हो जाता है और उसके बहुतसे क्लेश नष्ट हो जाते हैं। क्लेश नष्ट करनेके भगवान् बुद्धने दो साधन बताये हैं--एक शमय और दूसरा विपश्यना । शमथका अर्थ है समाधि और विपश्यनाका अर्थ है ज्ञान । इन दोनोंकी प्राप्ति भक्तिसे होती है । (५) ध्यानपारमिता-ध्यान पारमिताके साथ शमथ और विपश्यनाका सम्बन्ध है। शमय या समाधि बिना विरक्ति नहीं होती। इसलिये महायान सम्प्रदायमें विरक्तिपर बहुत जोर दिया है। आसक्तिके त्यागको महायान सम्प्रदायमें आवश्यक माना गया है और इसके
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy