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________________ २२२ भारतीय संस्कृतिके विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान प्राप्त किया है । हे भिक्षुओ ! मैंने अपने मन और शरीरसे त्रिरत्नके विरोधमें अनेक पाप किये हैं । मैं उन सबको स्वीकार करता हूँ। मैं अनेक अपराधोंको करनेवाला पापी हूँ। मैं पापसे किस प्रकार विमुक्ति प्राप्त करूंगा। मैं अत्यन्त भयभीत हूँ कि पापोंका भार फेंकने के पूर्व ही कहीं न मर जाऊँ" । शान्तिदेव पापोंसे विमुक्त होनेके लिए बोधिसत्त्वसे सहायताकी याचना करते हैं। दुःखसे मुक्ति प्राप्त करनेके लिये बुद्धकी शिक्षाओंका अनुसरण करना भी आवश्यक है। (३) पुण्यानुमोदना-जब पश्चात्तापकी अग्निमें भक्तके समस्त विकार नष्ट हो जाते हैं, तब उसमें पुण्यानुमोदनकी शक्ति आ जाती है। उसका हृदय दूसरोंके पुण्योंकी प्रशंसा करनेके योग्य हो जाता है । वह दूसरोंके शुभकर्मको देखकर प्रशंसा करता है और प्रसन्नताका अनुभव करता है। (४) अध्येषणा-अध्येषणाका अर्थ है-याचना या प्रार्थना। इस अवस्थामें सावक कृत-कृत्य बोधिसत्वोंसे याचना करता है कि संसारमें जीवोंकी सत्ता सदा बनी रहे, जिससे वह जीवोंकी दुःख निवृत्तिके लिये प्रयत्न करता रहे । भगवान् बुद्धसे भी यही कामना करता है कि उसे इसी प्रकारका उपदेश दें। (५) शरणगमन-मैं तुम्हारी शरणमें हूँ, इस प्रकारको प्रत्येक क्षण अनुभूति साधकको करनी चाहिए । बुद्ध, धर्म और संघ इन तीनोंकी शरण पापमुक्तिके लिये आवश्यक है । (६) आत्मभावादि परित्याग--महायान भक्ति सम्प्रदायमें अहम्भावके परित्यागपर बहुत बल दिया है । मनुष्य अपने अस्तित्वको विश्व प्राणियोंके अस्तित्वमें लीन कर देना चाहता है । उसका यह निश्चय रहता है कि जो कुछ भी पुण्य कर्म उसने किये हैं, वे सब दूसरे प्राणियों के कल्याणके विधायक बनें । साधक समस्त विकारोंका परित्याग कर दूसरोंके कल्याणमें लगना चाहता है । उसकी कामना है कि जो कुछ भी पुण्य उसने शुभ कर्मों द्वारा अर्जित किया है, उससे सम्पूर्ण प्राणियोंका दुःख दूर हो । दुःखी प्राणियोंके हृदयमें प्रवेश कर उनके दुःखको बांट लेनेकी आकुलता भी महायानी साधकमें देखी जाती है । बताया है-"जैसे अपने निरात्मक शरीरमें अभ्याससे आत्मबुद्धि होती है, उसी तरह दूसरोंमें भी अभ्याससे आत्मबुद्धि क्यों न हो ?" इस प्रकार भक्ति अङ्गके अन्तर्गत विकार भावको छोड़कर प्राणियोंके कल्याणके हेतु संकल्प करना और संकल्पानुसार प्रवृत्ति करना आदि परिगणित हैं । महायानीभक्ति साधक पारमिताएँ ___ महायानी भक्तिमें पारमिताओंको महत्त्व दिया गया है। वैष्णवी भक्तिमें जो स्थान सदाचार तत्त्वको प्राप्त है, वही स्थान महायानो भक्तिमें पारमिताओंको प्राप्त है । पारमिता शब्दका अर्थ है पूर्णत्व' । यह पालि भाषाके पारगामी शब्दसे निष्पन्न है । कुशल कर्मोके आचरणसे व्यक्ति पारमिताओंको प्राप्त करता है । पारमिताएं प्रधान रूप से छह हैं१. बोधिचर्यावतार २।२८-३२। २. वही, ३१-३। ३. वही, ३।४-५ । ४. पथात्मबुद्धिरम्यासात्स्वकायेऽस्मिन्निरात्मके । परेष्वपि तथात्मत्वं किमभ्यासाम्न जायते ॥ बोधिचर्यावतार, ८।११५ । 4. Aspects of Mahayana Budhism, Page 306
SR No.032458
Book TitleBharatiya Sanskriti Ke Vikas Me Jain Vangamay Ka Avdan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri, Rajaram Jain, Devendrakumar Shastri
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2003
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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