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भारतीय संस्कृति विकासमें जैन वाङ्मयका अवदान
यान -'अभ्युदयो यानं" शत्रुके कर आकपण करना या शत्रुको बलवान्ं समझ कर अन्यत्र चला जाना यान है ।
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आसन--" उपेक्षणमासनं " - यह एक प्रकार विराम सन्धिका रूपान्तर है । जब उभयपक्षी सामर्थ्य घट जाय तो अपने - अपने शिविर में विश्राम के लिये आदेश देना अथवा मंत्री परपक्ष और स्वस्वामीको शक्ति एवं सैन्य संख्या समान देखकर अपने राजाको एकभावस्थान लेनेका जो आदेश देता है, वह आसन है ।
संश्रय- "परस्यात्मार्पणं संश्रय" -- शत्रुसे पीड़ित होनेपर या उससे क्लेशकी आशंका कर किसी अन्य बलवान् राजाका आश्रय लेना संश्रय है ।
द्वैधीकरण - " एकेन सह सन्ध्ययान्येन सह विग्रहकरणमेकेन वा शत्रौ सन्धानपूर्व विग्रहो द्वैधीभावः". - जब दो शत्रु एक साथ विरोध करें, प्रथम एकके साथ सन्धिकर दूसरेसे युद्ध करे और जब वह पराजित हो जाय तो फिर प्रथमके साथ युद्धकर उसे भी हरा दे, इस प्रकार दोनों को कूटनीतिपूर्वक पराजित करना या मुख्य उद्देश्य गुप्त रखकर बहिरंग में शत्रु से सन्धिकर अवसर प्राप्त होते ही अपने उद्देश्यके अनुसार विग्रह करना द्वैधीकरण है । यह कूटनीतिका एक अंग है, इसमें बाहर कुछ और भीतर कुछ भाव रहते हैं ।
भेद - जिस उपाय द्वारा शत्रुकी सेनामेंसे किसीको बहकाकर अपने पक्षमें मिलाया जाय या शत्रुदल में फूट डालकर अपना कार्य साध लिया जाय, भेद है। इसी प्रकार चतुरंग राजनीतिका भी भेद-प्रभेदों सहित वर्णन किया है । राजा अपनी राजनीतिके बलसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश बन जाता है । जनताके जान-मालकी रक्षाके लिये विधान भी राजाको बनाना चाहिये । राजाको प्रधानतः नियम ओर व्यवस्था, परम्परा और रूढ़ियोंका संरक्षक होना अनिवार्य है ।
सोमदेव सूरिने राज्यका लक्ष्य धर्म, अर्थ, ओर कामका संवर्धन माना है । धर्म संवर्धनसे उनका अभिप्राय सदाचार और सुनीतिको प्रोत्साहन देना तथा जनता में सच्ची धार्मिक भावनाका संचार करना है । अर्थ संवर्धन के लिये कृषि, उद्योग, और वाणिज्यकी प्रगति, राष्ट्रीय साधनों का विकास, कृषि विस्तारके लिये सिंचाई और नहर आदि का प्रबन्ध करना आवश्यक बताया है । काम संवर्धन के लिए शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित कर प्रत्येक नागरिक को न्यायोचित सुख भोगनेका अवसर देना एवं कलाकौशलकी उन्नति करना बताया है । इस प्रकार राज्यमें शान्ति और सुव्यवस्था स्थापन के लिये जनताका सर्वाङ्गीण, नैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और शारीरिक विकास करना राजाका परम कर्त्तव्य है । इसलिये राजाको निम्न प्रकार नीतिज्ञ अवश्य होना चाहिये अर्थात् जो अरि, विजिगीषु, मध्यम, उदासीन इन चारों के अरि और मित्रके भेदसे युक्त आठ शाखावाले; साम, दान, भेद और दण्डसे युक्त चतुर मूलवाले; अरि विजिगीषु, अपने मित्रके साथी, शत्रुके मित्र, स्वमित्र, आक्रन्द अरिमित्र, पाणिग्रह, आक्रन्द, आक्रान्दमित्र और दो मध्यस्थ इन बारहको अमात्य, राज्य, दुर्ग, कोश
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१. यो विजिगीषी प्रास्थितेपि प्रतिष्ठमाने वा पश्चात्कोपं जनयति स पाणिग्रहः ।
२. पाणिग्रहाद्यः पश्चिमः स आक्रन्दः ।
३. पाष्णिग्राहमित्रमासार आक्रन्दमित्रं च । नी० वा० स० सू० २६-२८